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मज्झ-भावना (मेरी भावना का प्राकृत गाहा छन्द में रूपान्तरण)
जित्ता रायदेसा, णादं जेण तिलोय-सव्वं हि। उवदेसित्ता जीवा णिप्पिहवुत्ती य, मोक्खमग्गस्स1 ॥ जिसने राग द्वेष कामादिक जीते, सब जग जान लिया। सब जीवों को मोक्षमार्ग का, निस्पृह हो उपदेश दिया। बुद्ध-जिण-हरि-हरो वा, बंभा साहीणो हवदु को वि सो। मे भत्तिजुत्त-चित्तं, हवदु णिमग्गं हि तच्चरणे ॥2॥ बुद्ध-वीर-जिन-हरि-हर-ब्रह्मा, या उसको स्वाधीन कहो। भक्ति भाव से प्रेरित हो यह, चित्त उसी में लीन रहो। विसयासा रहिदा जे, समदा-भावं हि धारयंति मुदा। णिय-परहिदे णिमग्गा, हवंति ते तप्परा सददं ॥3॥ विषयों की आशा नहिं जिनके, साम्यभाव-धन रखते हैं। निज-पर के हित-साधन में जो, निश दिन तत्पर रहते हैं। सट्ठ-चागस्स तवो, खेदेण विणा हि आयरंति खलु। ते साहुणो हरंति य, दुक्ख-समूहे खणे एव ॥4॥ स्वार्थ त्याग की कठिन तपस्या, बिना खेद जो करते हैं। ऐसे ज्ञानी साधु जगत के, दुख समूह को हरते हैं। सद-संग-होदु तेसिं, तज्झाणं अह-णिसं च मे होदु। तेसिं चरिया सुद्धा, मणोणुरत्तं हवे णिच्वं ॥5॥ रहे सदा सत्संग उन्हीं का, ध्यान उन्हीं का नित्य रहे।
उन ही जैसी चर्या में यह, चित्त सदा अनुरक्त रहे। . पीडेज्ज णो कदावि, जीवे उत्तेज्ज अलीयवयणं णो।
परधण-णारिं णेच्छे, पिबेज्ज संतोस-पीऊसं ॥6॥
मज्झ-भावना :: 121