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________________ 14 सव्वोत्तु उच्च गिरिचूल - सुसिद्ध-भूमिं इंदं च - कुंभ-करणादि- सुभाग-भागं । दाहिण-भाग वडवाणि- जिणाण बिंबे णिव्वाण सील-सयलाण णमो णमोत्थु ॥14 ॥ सर्वोत्तम, उन्नत चूलगिरि को सिद्धभूमि - इंद्रजीत, कुंभकर्ण, मेघनाद आदि के भाग को प्राप्त हुए। वे दक्षिणभाग में स्थित बड़वानी के जिनबिंबों की एवं निर्वाण शील सिद्धों की वंदना करते हैं । 15 सोम्माकिदिं च मणमोहग-बिंब-बिंबं झाणग्ग- पोम्म - चरणेसु णर्मेति सव्वे । कित्तीइ सद्ध-परमं सुणिदूण एसो सम्मासणं च उववास मुणी वि गच्छे ॥15 ॥ सौम्याकृति, मनमोहक बिंबों की ओर ध्यानाग्र पद्मचरणों में सभी नमन करते हैं। इस बावनगजा की वंदना के समय महावीरकीर्ति के कीर्ति युक्त परम शब्द सुनकर ये उपवासी मुनि सन्मति सागर यात्रा हेतु पर्वत की ओर चल पड़ते हैं । 16 ते बावणे हु गज जुत्त पहुँच आदिं णम्मति मंडव - पदे भगवंत - गोट्ठी । दंसेज्जएंति पमुदिण्ण- भवे हु सव्वे किं वीराग अणुसासण-ठाण - एसो ॥16 ॥ वे सभी मुनि आचार्य संघ के साथ बड़वानी के बावन गज युक्त प्रभु आदि को नमन करते हैं। वे वहाँ मंडप पद में (मंडप के मूल में ) मानो भगवंतों की गोष्ठी हो ऐसा सभी प्रमुदित होते हुए देखते हैं। क्या वीतराग प्रभु का अनुशासन स्थान यही है ? 17 हत्थग्ग-छत्त- - सिरसे मुणि सम्मदिम्हि जस्सिं हवेदि उववास - वसेज्ज अप्पे | ओसग्ग जाद सयला कि थुवेंति आदि कम्माण किण्ह - महुमक्खिगणा पसंते ॥17॥ इधर शिष्यों पर आचार्य महावीरकीर्ति का हस्ताग्र था ही उपवासी मुनि सम्मदि सम्भवो :: 89
SR No.032392
Book TitleSammadi Sambhavo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2018
Total Pages280
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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