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प्राकृत काव्य-सृजक का अभिप्राय
यह परम सत्य है कि प्रकृति स्वाभाविक जनसामान्य का जो भाषा व्यवहार होता है वही प्राकृत कहलाती है । प्राकृत स्वाभाविक भाषा है। जो महावीर और बुद्ध के समय आर्ष कही जाती थी । महावीर - वचन शौरसैनी और अर्धामागधी इन दो प्राकृतों में हैं। शौरसैनी प्राकृत का प्रयोग महावीर के समय से लेकर अब तक हो रहा है। इसी तरह अर्धमागधी का भी किसी न किसी रूप में प्रयोग हो रहा है। पालि बुद्धवचन का भी शिक्षण हो रहा है । और किंचित् लेखन भी पालि में किया जा रहा
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है ।
यहाँ समझना यह है कि इस तरह के सृजन से क्या लाभ होगा ? प्रश्न हैं तो उत्तर अर्थात् समाधान भी उसी के अनुरूप होना चाहिए। सच तो यही है, पर जो भी प्राकृत या पालि में लिखा जाएगा वह उसी समय महावीर और बुद्धवचन को प्राप्त हो जाएगा। महावीर के 2600 वर्ष बाद लिखा जाने वाला प्राकृत साहित्य इक्कीसवीं शताब्दी में किसी व्यक्ति विशेष का हो सकता है, पर वह जिस भाषा में निबद्ध होगा या लिखा जाएगा वह प्राचीन मूल्यों एवं प्राचीन भाषा का बोध तो कराएगा ही, साथ ही उसका प्रारम्भिक स्वरूप भी हमारे सामने आ जाएगा ।
प्राकृत में जितना अधिक इक्कीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में लिखा जा रहा है वह पहले से अधिक है या कम, इस पर विचार न करके यही कहने में आएगा कि सृजन की अपेक्षा पांडुलिपि सम्पादन की आवश्यकता है। हमारे श्रमण, आचार्य, उपाध्याय, पढ़े-लिखे निरन्तर स्वध्याय करने वाले ब्रह्मचारी या उच्च-शिक्षण संस्थानों, विश्वविद्यालयों आदि में कार्यरत अध्यापकों को इस ओर कदम बढ़ाना होगा। इससे प्राकृत का पुन: उत्थान किया जा सकता है ।
एक दुःख की बात यह है कि सरकार ने उच्च माध्यमिक शिक्षण में एक वैकल्पिक विषय के रूप में खोल रखा, जिसे 35 साल से अधिक हो गया ।
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