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________________ साहेज्जदे कध कधं ण कहेज्जदे सो एगो सुदो अवर पाण पियादु रित्ता ॥32॥ स्नेही, गुणी एवं अतिवात्सल्यभाव वाली मातुश्री गृहकार्य करते हुए इस तरह के वियोग को प्राप्त हुई। उसे कैसे सहती कहा नहीं जा सकता है। एक पुत्र और दूसरा प्राणप्रिय से रिक्त हुई जयमाला। मालिनी 33 इध परम-विभूदिं भोगवंतं खिदीसं विदुस-तवि तवंतं सव्व कम्मंत ईसं। ण हु परिचयदि बंह रज्जराजं गुणीसं जम-जमहरदि अत्तो अप्पसुद्धे रमेज्जो॥33॥ इस संसार में यमराज परम विभूति वालों, भोगियों, क्षितीसों, विदुषों तप तपने वालों एवं सर्वकर्मक्षय के ईश, ब्रह्म लीन, राजा महाराजों एवं गुणीसों को नहीं छोड़ता, इसलिए आत्मा के शुद्ध भावों में लीन हों। 34 सुह-परम णिहाणं ठाण-णाणं सुमाणं धण-धणिग-धणड्ड कज्ज वंता ण अंते। सम समय-समित्तं धारएज्जा पमाणं विसय-विस-रसाणं चत्त कंतं सुकंतं ॥34॥ परम सुख का निधान, स्थान एवं मान तो ज्ञान में है। धन से धनिक, धनाढ्य की कार्य प्रमाणी अंतकाल में काम नहीं आती है। श्रम, समय-आत्मा के समत्व रूप प्रमाण को धारण करना चाहिए। विषयों के अतिकान्त भाव के रसों का त्याग अंत समय में समत्व को प्राप्त कराते हैं। 35 पंडिदा जयमाला सा, चिंत-विचिंत-धीमदा। अचिंत-सम्मदी भूदा, ओमं वड्डेदि अण्णगं॥35॥ वह पंडिता जयमाला, अति चिन्ताशील बुद्धिवाली अचिन्त सन्मति युक्त ओम एवं अन्य बालक-बालिकाओं का भरण पोषण करती है। ॥ इति तदिय सम्मदि समत्तो॥ सम्मदि सम्भवो :: 63
SR No.032392
Book TitleSammadi Sambhavo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2018
Total Pages280
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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