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रहे हों। यह पुरवाल (पद्मावती पुरवाल) में उत्तम पुत्र होगा ऐसा संकेत करने लगे
थे।
मेहा विणीर बहुमाण कुणंत हेदं णेदूण णं धवल-किण्ह-भवंत-सव्वे। आसाढ-माहसमए सहिसिंचएंति
णं सम्मदिं च सुद-सम्मदि ताव दाणं ॥34॥ ताप के पश्चात् (गर्मी के बाद) आषाढ़ माह के समय में मेघ नीर की बहुलता युक्त धवल एवं कृष्ण रूप बनाते हुए मेघ सर्वत्र सन्मति को सिंचित करते हैं मानो सुत दान से सन्मति रूप तपस्वी एवं श्रुत का ज्ञाता ही देना चाहते थे।
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सा सावणे णियगिहे णयमाण-भूदा भादुत्त भाव जणणी जणणेण जुत्ता। ओंकार ओम परमेट्टि गुणे णिबद्धा
भद्दे दहे हु दिवसे जिण भत्ति मुत्ता॥35॥ वह श्रावण माह में अपने पीहर गर्भ युक्त मातृत्व को प्राप्त होती, वह जननी और अपने पितुश्री से सन्मान युक्त भाद्रमाह के दश दिवस पर जिनभक्ति की मुक्ता वाली यह ओंकार रूप 'ओं' परमेष्ठियों के गुणों में लीन होती है।
36 एगादु एग सुह-माह गदं च पच्छा पंकादु जुत्त सरदो अदि अट्ठिगण्हो। णंदीसरंत सिरि सिद्धय चक्क पाढं
काले हु गब्भ समए बहुमाण-माणं ॥36॥ एक के बाद एक शुभ माह चले गये। पंक रहित शरद आया, अष्टाह्निक पर्व भी आया। वह जयमाला नंदीश्वर और श्री सिद्धचक्र के पाठ को प्राप्त गर्भ काल के समय बहुसम्मान ही सम्मान पाती है।
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पादाकुलक उत्तमरेहजुद सोलह मत्ता।
जणवरी माह सत्तविंस एहा। सुक्कवार उणविंसडतीसा।
52 :: सम्मदि सम्भवो