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हरिणी
III 115 555 SIS IIS 15 = 17
108 पयडि-पयडिं माणं मग्गं अहं ण हु जाणमि वंजिद-पइए भासे लोए इधे ण पहासए। समय-समयं सम्मं धम्मं पवेसमि पाइए
गगण-गण पक्खिं उड्वण ण किं परिदंसदे॥108॥ प्रकृति के स्वाभाविक मान, मार्ग आदि को मैं नहीं जानता हूँ। इस लोक में यदि प्राकृत भाषा के मार्ग में गतिशील होता हूँ तो परिहास नहीं समय-सिद्धान्त, समय-आत्मस्वभाव रूपी सम्यक् धर्म के प्रवेश को चाहता हूँ। सो ठीक प्रकृति से गगन में गतिशील पक्षी क्या उड़ते हुए नहीं दिखते हैं।
मालिनी-।।।ऽऽऽ ।ऽ ।ऽऽ = 15 वर्या पढम-वसह-णाहो अंतिमो वङ्कमाणो दिणयर-जिण-तित्थो पुज्जए अज्जकाले। अणुचर-चरि-चरित्ते इधे वद्रमाणे
तव-तवसि-पमाणी सम्मदी सम्मराडो109॥ प्रथम तीर्थकर वृषभनाथ हैं, अंतिम तीर्थकर वर्धमान हैं। ये दिनकर हैं, जिनतीर्थ-जिन तीर्थकर हैं, पूज्य हैं आज तक। इस वर्तमान युग में चरित्र एवं तप के तपस्वी सम्राट सन्मतिसागर उसी पथ के अनुगामी हुए।
॥ इदि पढमो सम्मदी सम्मत्तो॥
42 :: सम्मदि सम्भवो