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103
अस्सिं पाइय-कव्वम्हि, पुराण - पुरिसो ण हु ।
अप्प - कल्लाणि-तावस्सी, णिग्गंथो-गंथदेसगो ॥103 ॥
इस प्राकृत काव्य में पुराण पुरुष नहीं है। अपितु आत्म कल्याणी, तपस्वी निर्ग्रन्थ हैं और ग्रन्थ देशक हैं।
104
सद्दहेमि तवस्सिं हं, सम्मदिं इच्छमाणगो ।
संति तुट्ठी पपुट्ठि च, सेय- आरुग्ग - लाहगं ॥104 ॥
मैं इच्छाशील तपस्वी सम्राट् के प्रति श्रद्धा करता हूँ। मैं शान्ति प्राप्ति विघ्ननाश एवं श्रेय आरोग्यलाभ के लिए श्रद्धा करता हूँ ।
105
मे संसय अंधयारो हु, सम्मदि - अंसुए खए ।
होहिदि सम्म चारित्ते, कव्वे गदी पमाणिगे ॥105 ॥
काव्य में प्रमाणिक गति होने एवं सम्यक्चरित्र में प्रवेश होने पर मेरा संशय रूपी अंधकार सन्मति रूपी किरणों से दूर होगा ही ।
106
धण्णा ते माणवा लोए, पुज्जा - पसंस- कारगा ।
तवसि - पाणि-पत्तम्हि आहारं दिण्णिहिज्जए ॥106 ॥
लोक में वे मानव धन्य हैं, पूज्य एवं प्रशंसा के पात्र हैं, जिन्होंने तपस्वी, अनूठे तपस्वी के पाणि रूपी पात्र में आहार दिया होगा ।
107
सो धण्णो पाइयो सूरी, पाइयाइरियो इथे ।
ससंघ - ताव- मूलम्हि, चिट्ठेज्ज वड्ड पाइयं ॥107 ॥
वे प्राकृत सूरि प्राकृताचार्य 108 सुनीलसागर जी धन्य हैं। वे ससंघ उनके ताप मूल में स्थित-ताप परंपरा को लेकर यहाँ (उदयपुर- 2017) में तपस्या कर रहे और प्राकृत भाषा की वृद्धि कर रहे हैं ।
सम्मदि सम्भवो :: 41