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भूमिका
'सम्मदि-सम्भवो' महाकाव्य आचार्य तपस्वी सम्राट के प्रेरक प्रसंगों से परिपूर्ण काव्य वैराग्य मार्ग का पथ-प्रदर्शक है। इसके मूल प्रेरणादायक प्राकृत मनीषिप्राकृत-गौरव आचार्य सुनीलसागर हैं। उनकी कृति 'अनूठा तपस्वी' इसमें आधार बनी है। इसके मूल रचनाकार एवं हिन्दी अनुवादक डॉ. उदयचन्द्र जैन हैं, जो प्राकृत भाषा वेत्ता ही नहीं, अपितु प्राकृत के महाकवि हैं। आपके पाँच वृहद् शब्दकोश, अठारह महाकाव्य, आठ शतक, रूपक अनेकानेक अष्टक आदि प्राकृत में हैं। ये आशुकवि एवं द्विवागीश उपाधि से अलंकृत हैं।
आचार्य आदिसागर अंकलीकर की परम्परा के तपस्वी सम्राट आचार्य सन्मतिसागर एक जाने-माने तपस्वी हुए हैं। इनके जीवन के प्रेरक प्रसंगों को लेकर डॉ. जैन ने महावीर की वाणी जो प्राकृत भाषा में है उसी में इसका प्रणयन किया है। इसमें कुल पन्द्रह अधिकार हैं। उन अधिकारों (सर्गों) का नाम 'सम्मदी' ही रखा है। अन्त में प्रशस्ति के साथ-'जयदु सम्मदी जयदु सम्मदी' गीत दिया है। यहाँ यह स्पष्ट है कि कवि का प्रिय छन्द वसन्ततिलका है। इसी छन्द में भक्तामर के 48 काव्य लिखे गये हैं। प्राकृत-काव्य पढ़ने एवं सुनने में इसी छन्द से रुचिकर बना है। विषयगत-विवेचन
पढम-सम्मदी-प्रथम सन्मति में पुरुस्तुति (ऋषभ स्तुति) सिद्ध स्तुति, पंच परमेष्ठिस्तुति, सन्मति नमन को विशेष महत्त्व दिया। प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ को प्रथम सन्मति आरूढ़ तीर्थंकर कहकर उनके विविध नामों का उल्लेख किया है
बंह णाणादु बंहा सो, महेसो महदेवदो।
विज्ज-मणुण्ण-विज्जत्थी, सिप्पि-कम्म-विसारदो॥8॥ इसके अनन्तर तेवीस तीर्थंकरों का सामान्य विवेचन करते हुए सिद्ध मार्गियों,