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पंचम खण्ड: परिशिष्ट
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१९४३ से निरन्तर प्रकाशित हो रही है। जैन पत्रिकाओं में जिनवाणी का विशिष्ट स्थान है। पत्रिका की मुख्य विशेषता है कि यह सभी सम्प्रदायों की भावनाओं का आदर करते हुए एक सकारात्मक एवं नई सोच प्रदान करती है। इसमें प्रकाशित सामग्री बाल, युवा एवं वृद्ध सभी को सजीव चिन्तन प्रदान करती है। नवम्बर दिसम्बर १९५५ का दीपावली विशेषाङ्क, मई १९५६ का भीनासर सम्मेलन विशेषाङ्क प्राचीन प्रसिद्ध विशेषाङ्क रहे। जिनवाणी पत्रिका के अब तक १६ विशेषांक प्रकाशित हो चुके हैं- स्वाध्याय विशेषांक (सन् १९६४), सामायिक विशेषाङ्क (१९६५), तप-विशेषाङ्क (१९६६), श्रावकधर्म विशेषाङ्क (१९७०), साधना विशेषाङ्क (१९७१), ध्यान विशेषाङ्क (१९७२), जैन संस्कृति और राजस्थान (१९७५), कर्मसिद्धान्त-विशेषाङ्क (१९८४), श्रावक धर्म और समाज विशेषाङ्क (१९८५), | अपरिग्रह विशेषाङ्क (१९८६), आचार्य श्री हस्तीमलजी म.सा. श्रद्धांजलि अंक (१९९१), आचार्य श्री हस्तीमलजी म.सा. | : व्यक्तित्व एवं कृतित्व (१९९२), अहिंसा विशेषाङ्क (१९९३), सम्यग्दर्शन विशेषाङ्क (१९९६), क्रियोद्धार चेतना अङ्क | (१९९७), जैनागम-साहित्य विशेषाङ्क (२००२) ।
जिनवाणी पत्रिका के प्रथम सम्पादक डॉ. फूलचन्दजी जैन 'सारङ्ग' थे। श्री चम्पालालजी कर्नावट श्री केशरी किशोरजी नलवाया, श्री चांदमलजी कर्णावट श्री पारसमलजी प्रसून, पं. रतनलालजी संघवी, श्री शान्तिचन्द्रजी मेहता, श्री मिट्ठालाल जी मुरड़िया, पं. शशिकान्त जी झा आदि विभिन्न विद्वानों के सम्पादकत्व में विकसित इस पत्रिका का | दिसम्बर सन् १९६७ से नवम्बर सन् १९९३ तक कुशल सम्पादन हिन्दी के प्रसिद्ध साहित्यकार एवं जैन धर्म के विद्वान् डॉ. नरेन्द्र जी भानावत के हाथों हुआ। इस अवधि में पत्रिका (श्रीमती) शान्ता जी भानावत का भी सम्पादन में पूर्ण सहयोग मिला। अक्टूबर १९९४ से इस पत्रिका का सम्पादन अच्छी लोकप्रियता प्रतिष्ठा मिली। डॉ. डॉ. धर्मचन्द जैन, एसोशिएट प्रोफेसर, जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय, जोधपुर कर रहे हैं। जिनवाणी पत्रिका के | प्रचार-प्रसार में श्री दौलतरूपचन्दजी भण्डारी, श्री देवराजजी भण्डारी का योगदान उल्लेखनीय रहा। श्री मोतीलालजी मुथा सतारा, श्री गुलराज जी अब्बाणी जोधपुर, श्री केवलमलजी लोढा जयपुर एवं श्री सरदारचन्दजी भण्डारी जोधपुर ने भी अच्छा सहयोग प्रदान किया। शासन सेवा समिति के सदस्य श्री विमलचन्द डागा, जयपुर पत्रिका के सुचारु संचालन में समर्पित भाव से सन्नद्ध हैं।
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प्रारम्भ में यह पत्रिका २४ एवं फिर ३२ पृष्ठों में प्रकाशित होती थी। अब ८० पृष्ठों में प्रकाशित इस पत्रिका | में प्रवचन, निबन्ध-विचार, आगम-परिचय, कथा, कविता, प्रेरक-प्रसंग आदि विविध रचनाओं के अतिरिक्त साहित्य-समीक्षा, सम्पादकीय एवं समाचार स्तम्भ भी नियमित रूप से उपलब्ध रहते हैं। पत्रिका की वर्तमान में स्तम्भ सदस्यता ११०००/- रुपये, संरक्षक सदस्यता ५००० रुपये, एवं आजीवन सदस्यता ५०० रुपये है। विदेश में आजीवन सदस्यता १०० डालर में प्रदान की जाती है ।
(२) स्वाध्याय शिक्षा का प्रकाशन यह द्वैमासिक पत्रिका प्राकृत, संस्कृत एवं हिन्दी भाषा में प्रकाशित लेखों के माध्यम स्वाध्यायियों और जिज्ञासुओं के ज्ञानवर्धन में सहायक सिद्ध हुई है। इस पत्रिका का लक्ष्य प्राकृत एवं संस्कृत भाषा का अभ्यास बढ़ाना भी है ।
पत्रिका का प्रारम्भ सन् १९८६ में श्री श्रीचन्द सुराना सरस के सम्पादन में हुआ तथा १९८९ से इसके सम्पादन का कार्य डॉ. धर्मचन्द जैन ने सम्हाला । इस पत्रिका के अब तक ४५ अंक प्रकाशित हो चुके हैं तथा १९ वां अंक 'आचार्य श्री हस्तीमलजी म. स्मृति अंक' के रूप में प्रकाशित हुआ है, जिसमें प्राकृत, संस्कृत एवं हिन्दी लेखों के अतिरिक्त संघ की विभिन्न संस्थाओं का परिचय भी दिया गया है। स्वाध्याय - शिक्षा पत्रिका ने विद्वद्वर्ग एवं