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________________ ८०० नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं जाता । सेवा व समर्पण की आप प्रतिमूर्ति थे । नयन- ज्योति मंद होने से पूज्य आचार्य श्री विनयचंदजी म.सा. को १४ | वर्षों तक जयपुर स्थिरवास विराजना पड़ा, तब उनकी अहर्निश जो सेवा आपने की वह जिनशासन के इतिहास में | सदा स्वर्णाक्षरों में अंकित रहेगी। रात्रि में पूज्य श्री अगर करवट भी बदलते तो आहट मात्र से ही आप जाग जाते। निद्रा के क्षणों में अप्रमत्त भाव से सेवा हेतु सजगता का आपने अनुपम आदर्श उपस्थित किया । वि.स. १९७२ में पूज्य आचार्य श्री विनयचंद जी म.सा. के महाप्रयाण के बाद चतुर्विध संघ द्वारा अजमेर में फाल्गुन कृष्णा अष्टमी को आपको इस गौरवशाली परम्परा के आचार्य पद पर अधिष्ठित किया गया। आचार्य के | रूप में आपने अपनी अमिट छाप छोड़ी व सहस्रों व्यक्तियों को धर्म से जोड़ कर उन्हें संस्कार प्रदान किये। एक | सम्प्रदाय के आचार्य होकर भी असाम्प्रदायिकता, सभी के साथ स्नेह आपकी अनूठी विशेषता थी। उस समय के | मारवाड़ी भक्त समुदाय में एक मात्र कोट्यधिपति सेठ सोहनमलजी सा. चोरड़िया ( मालिक अगरचन्द मानमल, मद्रास) के नौ वर्षीय दत्तक पुत्र श्री मोहनमलजी व उनके माता-पिता द्वारा निवेदन करने एवं स्वयं मांगे जाने पर भी आपने पूर्व गुरु आम्नाय पलटाने से स्पष्ट इनकार कर दिया । यह आपकी निस्पृहता का अनुपम उदाहरण है। यही नहीं भक्तों में कौन आया, नहीं आया, इससे भी आप सर्वथा निरपेक्ष थे । सदा स्वाध्याय व साधना में | लीन अप्रमत्त जीवन के आप साकार स्वरूप थे । स्वयं चरितनायक ने अनेकों बार आपका स्मरण करते हुए फरमाया “मेरे गुरुदेव ने कभी टेका नहीं लिया। उनके जीवन का मूलमंत्र था - सरलता और अप्रमत्तता । अपने शिष्यों को किस प्रकार गढ़ना, इसमें आप निष्णात थे । कुशल शिल्पी की भांति आपने अपने शिष्यों की विशेषताओं को किस प्रकार विकसित किया, इसका साक्षात् उदाहरण हम बालक मुनि हस्ती के जीवन से देख | सकते हैं। आप अपने शिष्यों से आगम अध्ययन के साथ ही संस्कृत, प्राकृत व व्याकरण में निष्णात बनाने हेतु सदा यत्नशील रहते। आप फरमाया करते " घाल गले में गूदड़ी, निश्चय मांडे मरण । गो ची प लि नित करे, तब आवे व्याकरण || " पु आचार्य श्री स्वाध्याय, साधना व क्षण-क्षण के उपयोग के प्रति सजग थे। आप नित्य प्रति उत्तराध्ययन सूत्र का पूर्ण स्वाध्याय किया करते । उत्तराध्ययन सूत्र आपको निजनामवत् कंठस्थ था, यहाँ तक कि पीछे के क्रम से भी पूरा उत्तराध्ययन सूत्र फरमा देते । अठाई जैसा तप होने पर भी आप प्रवचन फरमाते व आवश्यक होने पर स्वयं गोचरी भी पधार जाते । सहजता, सरलता, अल्हड फक्कड़पन, सेवा, साधना व स्वाध्यायरतता जैसी अनेक विशेषताएँ आपकी जीवन-शैली का मानो अंगभूत हो गई । आपने जिन महापुरुषों को दीक्षा प्रदान की, वे हैं - साधना की प्रतिमूर्ति श्री सागरमलजी म.सा, श्री लालचंदजी म.सा, चरितनायक श्री हस्तीमलजी म.सा, श्री चौथमलजी म.सा. एवं श्री बडे लक्ष्मीचन्दजी म.सा. । आपके शासनकाल में १६ महासतियों की दीक्षा हुई - (१) महासती श्री केवलकुंवरजी (२) महासती श्री झमकू जी (३) महासती श्री किशनकंवरजी (४) महासती श्री रूपकंवरजी (५) महासती श्री अमृतकंवरजी (६) महासती श्री केवलकंवरजी (७) महासती श्री धूलाजी (८) महासती श्री सज्जनकंवरजी (९) महासती श्री सुगनकंवरजी (१०) महासती श्री छोगाजी (महामन्दिर वाले) (११) महासती श्री विसनकंवरजी (१२) महासती श्री रतनकंवरजी (१३) महासती श्री चैनकंवरजी (१४) महासती श्री हुलासकंवरजी (१५) महासती श्री सुवाजी (१६) महासती श्री धूलाजी ।
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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