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चतुर्थ खण्ड : कृतित्व खण्ड लेकर लोंकाशाह पर्यन्त का जैन इतिहास आचार्यप्रवर के द्वारा 'जैनधर्म का मौलिक इतिहास' नामक ग्रंथ के चार भागों में प्रस्तुत किया गया है। यहाँ प्रत्येक भाग का संक्षिप्त परिचय दिया जा रहा है।
प्रथम भाग- प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव से लेकर २४ वें तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी के जीवन की ऐतिहासिक घटनाओं का उल्लेख इस भाग में हुआ है। इस भाग को 'तीर्थकर खण्ड' नाम दिया गया है। इस भाग में सभी तीर्थंकरों के पूर्वभव, उनकी देवगति की आयु, च्यवनकाल, जन्म, जन्मकाल, राज्याभिषेक, विवाह, वर्षीदान, प्रव्रज्या, तप, केवलज्ञान, तीर्थ स्थापना, गणधर, प्रमुख आर्या, साधु-साध्वी की संख्या एवं तीर्थंकरों द्वारा किए गये विशेष उपकार का वर्णन हुआ है। आचार्य श्री ने इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में अपनी बात के अन्तर्गत यह उल्लेख किया है कि यह ग्रन्थ प्रथमानुयोग की प्राचीन आगमीय-परम्परा के अनुसार लिखा गया है। इसमें आचारांग सूत्र, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, समवायांग, आवश्यक सूत्र, आवश्यक नियुक्ति, आवश्यक चूर्णि, प्रवचनसारोद्धार, सत्तरिसय द्वार
और दिगम्बर परम्परा के महापुराण, उत्तरपुराण, तिलोयपण्णत्ति आदि प्राचीन ग्रन्थों का आधार रहा है। हेमचन्द्राचार्य द्वारा रचित त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र, आचार्य शीलांक द्वारा रचित महापुरिसचरियं, जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण द्वारा रचित विशेषावश्यक भाष्य आदि ग्रन्थ भी इतिहास लेखन में सहायक रहे हैं। मतभेद के स्थलों पर शास्त्रसम्मत विचार को ही प्रमुखता दी गई है।
जैन समाज में, विशेषत: श्वेताम्बर स्थानकवासी समाज में प्रामाणिक इतिहास की कमी चिरकाल से खटक रही थी । उसे आचार्य श्री ने इस ग्रन्थ का लेखन कर दूर किया एवं जैन समाज और भारतीय इतिहास को महत्त्वपूर्ण अवदान किया।
इस खण्ड में भगवान ऋषभदेव, भ. अरिष्टनेमि, भ. पार्श्वनाथ और भ.महावीर के जीवन चरित्र और घटनाओं का विस्तार से वर्णन हुआ है। शेष २० तीर्थंकरों के सम्बन्ध में संक्षिप्त जानकारी प्राप्त होती है।
चौबीस तीर्थंकरों में अन्तिम तीन तीर्थंकर ऐतिहासिक युग के तीर्थंकर माने जाते हैं जबकि प्रारम्भ के २१ तीर्थंकर प्रागैतिहासिक काल में गिने जाते हैं। तीर्थंकरों के साथ ही भरत एवं ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती के सम्बन्ध में तुलनात्मक दृष्टि से प्रकाश डाला गया है। श्री कृष्ण के सम्बन्ध में जैन दृष्टि से चिंतन किया गया है। वैदिक और जैन ग्रन्थों के आधार पर भ. अरिष्टनेमि का वंश परिचय दिया गया है। इस प्रकार ग्रन्थ में जैन साहित्य के अतिरिक्त वैदिक और बौद्ध साहित्य से भी गवेषणा की गई है। ग्रन्थ संपादन के कार्य में गजसिंह जी राठौड़ के अतिरिक्त श्री देवेन्द्र मुनि जी शास्त्री, पं. रत्न मुनि श्री लक्ष्मीचंद जी म, पं. शशिकान्त जी झा और डा. नरेन्द्र जी भानावत का भी सहयोग रहा है । इस ग्रन्थ का प्रथम संस्करण सन् १९७१ में प्रकाशित हुआ था। उसके अनन्तर इसके दो संस्करण और निकल चुके हैं। ग्रन्थ का सर्वत्र स्वागत किया गया है। ___आचार्य श्री द्वारा निर्मित इस इतिहास ग्रन्थरत्न की अनेक मूर्धन्य विद्वानों ने भूरि-भूरि प्रशंसा की है। कतिपय विद्वानों के अभिमत संक्षेप में निम्न प्रकार हैं
१. जैन धर्म का यह तटस्थ और प्रामाणिक इतिहास है। -पं. दलसुख भाई मालवणिया, अहमदाबाद २. जैन धर्म के इतिहास सम्बन्धी आधार-सामग्री का जो संकलन इसमें हुआ है, वह भारतीय इतिहास के लिए ||
उपयोगी है ।-डॉ. रघुवीर सिंह सीतामऊ ३. दिगम्बर एवं श्वेताम्बर परम्परा के प्रसिद्ध पुरुषों के चरित्रों का इसमें दोहन कर लिया गया है।- पं.
हीरालाल शास्त्री, ब्यावर