SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 806
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७३८ नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं (३) स्वभाववाद एवं पुरुषार्थ (४) समय का महत्त्व (५) परम्परा और सुधारवाद (६) आत्मा ही अपना तारक है (७) अहिंसा पर तात्त्विक विचार । भौतिकवाद और धर्म के संबंध में विवेचन करते हुए आचार्य श्री भौतिकवाद को जन संघर्ष, वैर और द्वेष की भावना का कारण बताते हैं तो धर्म को आपसी स्नेह और शान्ति का साधन बताते हैं । आचार्य श्री कहते हैं कि धर्म की विलक्षण शक्ति के आगे भौतिक बल सदा से हार खाता आया है। आज धर्म के मकाबले में भौतिक तत्त्व को ऊंचा बताया जा रहा है, लेकिन याद रखना चाहिए कि धर्म को भूलने पर मानवता की नींव डांवाडोल हो उठेगी तथा स्वार्थलिप्सा सीमा का अतिक्रमण कर जाएगी। दुःख का मूल लोभ को बताते हए आचार्य श्री ने कहा है कि लोभ का उदय होने पर शान्ति, दया, करुणा और स्नेह बादल में चाँद की तरह छिप जाते हैं। संसार की सारी सम्पदा और विपुल वैभव प्राप्त करके भी लोभी को संतोष नहीं होता। संसार में आज तक जितने लोमहर्षक युद्ध या संहार हुए हैं उसका प्रमुख कारण लोभ ही है। लोभ से हृदय अशांत, मन चंचल, व्यवहार व व्यापार कृष्ण, भावना अशुभ, उद्देश्य मलिन, दृष्टि विषम, विचार कुत्सित और लक्ष्य अशुद्ध बन जाते हैं। लोभी मनुष्य बन्धु, मित्र और प्रिय कुटुम्ब की रत्ती भर भी परवाह नहीं रखता और जैसे-तैसे अर्थसंग्रह में प्रवृत्त होता है। लोभ के कारण ही आज की अदालतों में भीड़ जमी रहती है। ‘स्वभाववाद एवं पुरुषार्थ' प्रवचन दार्शनिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। पंच समवाय में काल, स्वभाव, नियति, कर्म और पुरुषार्थ की गणना होती है। स्वभाववादियों की मान्यता है कि संसार में सुकृत और दुष्कृत दिखाई देते हैं, वे स्वभाव से ही होते हैं इनमें किसी के श्रम या पुरुषार्थ की आवश्यकता नहीं होती । सिंह का हिंसक स्वभाव जन्म से ही है। मयूरादि पक्षियों के पंख स्वभाव से ही रंग बिरंगे हैं। यह स्वभाववाद एकान्त रूप से सही नहीं है। स्वभाव को ही कर्ता-धर्ता नहीं माना जा सकता । आत्मा का पुरुषार्थ इसमें मुख्य कारण है। इसी प्रकार काल, नियति और कर्म को भी कार्य का एकान्त कारण मानना सत्य से दूर है। पुरुषार्थ एवं अन्य कारणों के सहयोग से ही कार्य सम्पन्न हुआ करते हैं । 'समय का महत्त्व' नामक प्रवचन में अप्रमत्त होकर समय का उपयोग करने की प्रेरणा की गई है। आचार्य श्री फरमाते हैं - “अधिकतर लोगों का इस बात पर ध्यान नहीं जाता कि जीवन संग्राम में समय का क्या महत्त्व है। यह जानते हुए भी कि मृत्यु अटल और निश्चित है, लोग इस ओर से बेखबर और बेफ्रिक बने रहते हैं। आवश्यक से आवश्यक काम को भी कल पर टालने की आदत सी बन गई है और यही प्रमाद मानव को उन्नत और गौरवशील बनने से रोकता ही नहीं, बल्कि भयंकर पतन के गर्त में गिराकर सर्वनाश कर देता है।” “परम्परा और सुधारवाद' विषयक प्रवचन में आचार्य श्री | इस बात की ओर ध्यान केन्द्रित करते हैं कि परम्परावादी व्यक्ति अपनी रूढ़ि से चिपका रहना चाहता है और सुधारवादी प्राचीनता के नाम से ही चौंकता है। जबकि सत्य, शान्ति और लोक कल्याण के लिए दोनों का उचित समन्वय होना आवश्यक है। पुरानी होने से हर बात आँख मूंद कर मानने लायक नहीं होती और न नवीन होने से | सब बातें बुरी होती हैं। सज्जनों को चाहिए कि उन दोनों में परीक्षा कर एक को ग्रहण करें तथा दूसरे का परित्याग करें। आत्मा ही स्वयं अपना तारक है, इस संबंध में आचार्य श्री ने जैन धर्म की मान्यता को आगमिक उद्धरणों और कथानकों के माध्यम से समझाते हुए कहा है कि हमारी दु:ख-मुक्ति दूसरों के हाथ में नहीं है। सामान्य देव की कौन कहे, असंख्य देवी-देवों का स्वामी इन्द्र भी हमें दुःख मुक्त नहीं कर सकता। हमारे भीतर ही वह शक्ति है जिससे हमारी मुक्ति हो सकती है। अहिंसा पर तात्त्विक विचार करते हुए आचार्य श्री ने फरमाया है कि अहिंसा केवल परहित का ही नहीं स्वहित और आत्म-सन्तोष का भी प्रमुख कारण है। विधि और निषेध रूप से अहिंसा के दो पहलू हैं - जैसे ऐसा कोई काम मत करो जिससे जीवों की हिंसा हो - यह अहिंसा का निषेध रूप है और यतना
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy