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________________ चतुर्थ खण्ड : कृतित्व खण्ड ७३५ अंतिम छत्तीसवें अध्ययन जीवाजीव विभक्ति तक बहुत ही सुन्दर ढंग से वर्णन हुआ है। चौबीसवें अध्ययन में पांच || समिति व तीन गुप्ति नामक अष्टप्रवचनमाता का, पच्चीसवें अध्ययन में जय घोष और विजय घोष का संवाद, छब्बीसवें अध्ययन में साधु-समाचारी का, सत्ताईसवें अध्ययन में दुर्विनीत शिष्य का, अट्ठाईसवें अध्ययन में मोक्षमार्ग का तथा उनतीसवें अध्ययन में अध्यात्म विषयक ७३ प्रश्नोत्तरों का वर्णन हुआ है, जो इस सूत्र के महत्त्व एवं उपयोग को प्रतिपादित करता है। तीसवें अध्ययन में आभ्यन्तर एवं बाह्य तपों का, इकतीसवें अध्ययन में चारित्र का और बत्तीसवें अध्ययन में प्रमाद और अप्रमाद का अथवा वीतरागता का प्रतिपादन हुआ है। तैंतीसवें अध्ययन में अष्टविध कर्मों का, चौंतीसवें अध्ययन में षड्विध लेश्याओं का और पैंतीसवें अध्ययन में अणगार मार्ग का तथा छत्तीसवें अध्ययन में जीवों और अजीवों का निरूपण हुआ है। उत्तराध्ययन सूत्र के इस तृतीय भाग का प्रथम संस्करण १९८९ ई. में प्रकाशित हुआ था। (६) उत्तराध्ययन सूत्र - पद्यानुवाद आचार्य श्री की यह भावना रही कि उत्तराध्ययन सूत्र का हार्द प्रत्येक व्यक्ति सरलतापूर्वक ग्रहण कर सके। इसीलिये उन्होंने अपने सान्निध्य में उत्तराध्ययन सूत्र का हिन्दी में पद्यानुवाद तैयार कराया। इस कार्य में पं. शशिकांतजी झा का विशेष सहयोग मिला। पद्यानुवाद सरल, सरस एवं सुबोध है। कोई भी साधारण हिन्दी का ज्ञाता इस पद्यानुवाद के माध्यम से समस्त उत्तराध्ययन सूत्र की विषयवस्तु को अल्प समय में ही जान सकता है। इस पुस्तक का द्वितीय संस्करण सन् १९९६ में सम्यग्ज्ञान प्रचारक मण्डल, जयपुर से प्रकाशित हुआ है। (७) दशवैकालिक सूत्र (पद्यानुवाद सहित) आधुनिक युग में श्रावकों एवं श्रमणों को दशवैकालिक सूत्र का हार्द शीघ्र एवं सरलता से ज्ञात हो सके, एतदर्थ आचार्य प्रवर ने इसके मूल पाठ को हिन्दी पद्यानुवाद , प्रत्येक शब्द के अन्वयपूर्वक अर्थ एवं भावार्थ के साथ तैयार कराया। प्रत्येक अध्ययन के अन्त में आवश्यक अंशों या शब्दों पर विस्तृत टिप्पणियाँ भी दी गई। इस प्रकार यह संस्करण सामान्य एवं विशिष्ट सभी पाठकों के लिये उपयोगी बन गया है। हिन्दी पद्यानुवाद का एक प्रयोजन आम लोगों में आगम के प्रति रुचि उत्पन्न करना भी रहा है। दूसरी बात यह है कि इससे आगम का भाव सुगम हो जाता है। हिन्दी पद्यानुवाद आचार्यप्रवर के मार्गदर्शन में पं. शशिकान्त जी झा द्वारा किया गया है। दशवैकालिक सूत्र के इस प्रथम संस्करण का प्रकाशन मई १९८३ ई. में सम्यग्ज्ञान प्रचारक मण्डल जयपुर द्वारा किया गया। दशवकालिक सूत्र का यह संस्करण बहुत लोकप्रिय हुआ, जिसकी निरन्तर माँग रहती है एवं आवृत्तियाँ निकलती रहती हैं। उत्तराध्ययन सूत्र की भांति दशवकालिक सूत्र भी एक महत्त्वपूर्ण आगम है, जो लगभग सभी साधुसाध्वियों के द्वारा कंठस्थ किया जाता है तथा श्रमण-जीवन के लिए इसका अध्ययन आवश्यक माना जाता है। दशवैकालिक सूत्र की गणना चार मूल सूत्रों में होती है। दस अध्ययनों में विभक्त यह आगम साध्वाचार की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इसकी रचना आचार्य शय्यम्भव के द्वारा उनके अल्पवय पुत्र मनक को संक्षेप में श्रमणाचार से परिचित कराने के लिए की गयी थी। इसमें षट्कायिक जीवों की रक्षा, पंचमहाव्रतों के निरतिचार पालन, आहार-गवेषणा, विनय-समाधि, तप-समाधि आदि का विस्तृत प्रतिपादन हुआ है।
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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