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________________ चतुर्थ खण्ड : कृतित्व खण्ड ७३१ ।। (१) दशवैकालिक सूत्र (अवचूरि एवं भाषा टीका सहित) श्रमणाचार की दृष्टि से आर्य शय्यम्भव द्वारा रचित दशवैकालिक सूत्र अत्यन्त महत्त्वपूर्ण आगम है। आचार्य । श्री का जब संवत् १९९६ (सन् १९३९ ई) में सातारा (महाराष्ट्र) में चातुर्मास था तब 'दशवैकालिक सूत्र' का प्रकाशन संशोधित मूलपाठ, संस्कृत छाया, अवचूरि एवं आचार्य श्री द्वारा लिखित 'सौभाग्य चन्द्रिका' नामक हिन्दी भाषा टीका के साथ हुआ। कार्य अतीव कठिन एवं श्रमापेक्षित था। सूत्र का महत्त्वपूर्ण प्रकाशन स्व. श्रेष्ठिचन्दन जैनागम ग्रन्थमाला के अन्तर्गत मोतीलाल जी मुथा के द्वारा शास्त्रोद्धार योजना में कराया गया। ग्रन्थ-प्रकाशन के समय आचार्य श्री मात्र २९ वर्ष के थे और आगम-व्याख्या के क्षेत्र में उनका यह प्रथम कार्य था। भण्डारकर ओरियण्टल इंस्टीट्यूट पूना में उपलब्ध अवचूरि सहित प्रति (संवत् १५१५) को आधार बनाकर अवचूरि की अन्य तीन प्रतियों से मिलान कर पाठ संशोधन का कार्य श्रमसाध्य था। मूल प्राकृत पाठ की संस्कृत छाया एवं हिन्दी अनुवाद (सौभाग्य चन्द्रिका भाषा टीका) कर आचार्यप्रवर ने आगम-साहित्य के क्षेत्र में मूल्यवान योगदान किया। उस समय इस प्रकार के प्रयत्न की बहुत माँग थी। तत्कालीन प्रमुख सन्तों एवं विद्वानों की सम्मतियाँ और सुझाव भी मंगाये गए जो सूत्र | के प्रारम्भ में प्रकाशित हैं। ग्रन्थ का प्रकाशन पत्राकार शैली में हुआ है, जिसे जिल्द बन्ध भी कराया गया है। आचार्यप्रवर ने इसकी भाषाटीका अपने पूज्य गुरुदेव श्री शोभाचन्द्रजी म.सा. के नाम पर लिखते हुए गुरु की कृपा को महत्त्व देकर विनम्रता का परिचय दिया है। जैसा कि भाषा टीका के अन्त में आचार्यप्रवर का कथन है है जानना सूत्रार्थ का गुरु की कृपा पर टिक रहा । हठ से स्वयं जो पढ़ लिया, वह तत्त्व से वञ्चित रहा ॥ यह बात सच्ची मानकर, गुरुनाम से टीका रची । गुरु ने सिखाई थी तथा जो बात मति से भी जची ॥१॥ इस बात को गाथानुगत, न्यूनाधिकों को छोड़कर । मैंने लिखा है गुरु कथित, निज संस्मरण से जोड़कर ॥ स्मृति ही हुई हो क्षीण या विपरीत तो चाहूँ यही । विद्वान् मुनिवर सोचकर, समझें वही जो हो सही ॥२॥ जो कुछ पाया वह गुरु कृपा का ही प्रसाद है आपकी यह अन्तर्हदय की भावना उपर्युक्त कथन से प्रकट होती ग्रन्थ के अन्त में प्रत्येक अध्ययन से चुने हुए अर्धमागधी शब्दों की संस्कृत छाया, लिङ्ग एवं उनका हिन्दी अर्थ | दिया गया है, जिससे इसका महत्त्व बढ़ गया है। अन्त में शुद्धिपत्र भी जोड़ा गया है। दशवैकालिक के इस संस्करण पर तत्कालीन उपाध्याय श्री आत्मारामजी महाराज सा एवं उपाध्याय श्री अमरचन्द्रजी महाराज सा ने लुधियाना (पंजाब) से २३ मई १९४० को इस प्रकार भाव प्रेषित किये थे - “दशवैकालिक सूत्र का इतना अधिक सुन्दर एवं सफल संस्करण जैन संसार को देने के उपलक्ष्य में आचार्य श्री हस्तीमलजी को हार्दिक धन्यवाद । आधुनिक सम्पादन पद्धति के सभी समुचित साधनों का उपयोग करके वास्तव | में स्थानकवासी जैन समाज में प्रकाशन की एक नई दिशा स्थापित की गयी है। सौभाग्य चन्द्रिका टीका की भी अपनी एक खास विशेषता है। सरस, सरल और सुबोध भाषा के द्वारा संक्षेप में मूल का वास्तविक आशय प्रकट कर देना ही विशिष्ट लेखन कला है और इसमें आचार्य श्री की सफलता प्रशंसनीय है।"
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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