SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 798
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७३० नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं में प्रतिष्ठित करने का अथवा लोकैषणा का नहीं, वरन् जिनवाणी के पावन प्रवाह को आर्यधरा के कोने-कोने में पहुंचाने का था। पर जब उन्हें प्रतीत हुआ कि आज का साधक आत्मोत्थान का अपना मूल लक्ष्य भूल कर मात्र साहित्य रचना एवं अपने व्यक्तित्व को प्रतिष्ठापित करने की ओर अग्रसर हो रहा है तो उन्होंने इससे विराम लेने में भी कोई संकोच नहीं किया। साधना के पुरोधा इस महापुरुष ने जो कुछ अपनी मितवाणी द्वारा उच्चरित किया, जो कुछ अपनी कलम से आबद्ध किया, वही उच्च कोटि का साहित्य बन गया। ध्यान, साधना एवं आत्मिक स्वरूप के चिन्तन से जो नवनीत प्राप्त हुआ, वह आपकी काव्य रचना के माध्यम से प्रकट हुआ। प्राच्य संस्कृति के प्रति गौरव एवं श्रद्धा के धनी आचार्यप्रवर ने इतिहास का आलोड़न कर इतिहास की अनेक विस्मृत कड़ियों को ढूंढा, अनेक विसंगतियों का समाधान कर इतिहास का मौलिक स्वरूप प्रस्तुत कर संघ को अतीत के गौरव का भान कराते हुए अभिनव भविष्य की संरचना का आह्वान किया। बहुमुखी प्रतिभापुञ्ज आचार्यदेव की रचनाएँ मुख्यत: पाँच रूपों में विभक्त की जा सकती हैं - १. आगमिक व्याख्या साहित्य २. प्रवचन साहित्य ३. इतिहास ४. काव्य-कथा ५. अप्रकाशित एवं अनुपलब्ध रचनाएँ। (अ) आगमिक व्याख्या-साहित्य आगम-मनीषी आचार्यप्रवर का आत्म-जीवन तो आगम-दीप से आलोकित था ही, किन्तु वे उसका प्रकाश जन-जन तक पहुँचाने हेतु भी सन्नद्ध रहे। आचार्य श्री की दृष्टि आगम-ज्ञान को शुद्ध एवं सुगम रूप में सम्प्रेषित करने की रही। यही कारण है कि आचार्यप्रवर ने पूर्ण तन्मयता से आगमों की प्रतियों का संशोधन भी किया। उन्हें संस्कृत छाया, हिन्दी पद्यानुवाद, अन्वयपूर्वक शब्दार्थ एवं भावार्थ से समन्वित किया। पद्यानुवाद का प्रयोग आचार्यप्रवर की मौलिक दृष्टि का परिचायक है। सूत्र के प्रकाशन कार्य को साध्वाचार की दृष्टि से सदोष मानकर भी आचार्यप्रवर ने तीन उद्देश्यों से इस कार्य में सहभागिता स्वीकार की। नन्दीसूत्र की प्रस्तावना में स्वयं आचार्य श्री ने इस संबंध में लिखा है - “पुस्तक मुद्रण के कार्य में स्थानान्तर से ग्रन्थ-संग्रह , सम्मत्यर्थ पत्र-प्रेषण, प्रूफ-संशोधन व सम्मति प्रदान करना आदि कार्य करने या कराने पड़ते हैं। इस बात को जानते हुए भी मैंने जो आगम-सेवा के लिये इस अंशत: सदोष कार्य को अपवाद रूप से किया, इसका उद्देश्य निम्न प्रकार है १. साधुमार्गीय समाज में विशिष्टतर साहित्य का निर्माण हो। २. मूल आगमों के अन्वेषणपूर्ण शुद्ध संस्करण की पूर्ति हो और समाज को अन्य विद्वान् मुनिवर भी इस ___ दिशा में आगे लावें। ३. सूत्रार्थ का पाठ पढ़कर जनता ज्ञानातिचार से बचे। इन तीनों में से यदि एक भी उद्देश्य पूर्ण हुआ तो मैं अपने दोषों का प्रायश्चित्त पूर्ण हुआ समझूगा।” आचार्यप्रवर कृत यह उल्लेख उनकी आगम-निष्ठा को उजागर करता है। यहाँ पर यह भी उल्लेखनीय है कि सन् १९८० के दशक में आचार्य श्री ने लेखन-प्रकाशन के कार्य से विराम ले लिया था। आचार्यप्रवर द्वारा की गयी आगमिक व्याख्याएँ निम्नाङ्कित हैं
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy