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नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं जब जन्म-जन्म का पुण्य फला, श्री चरणों का सान्निध्य मिला, सत्पथ पर थोड़े कदम चला, कहाँ चले गए शंकाएँ हों, परीषह आते, सन्मार्ग से मन को मचलाते, तब समाधान हम थे पाते, कहाँ चले गए - नित सामायिक स्वाध्याय करो, जीवन में मंगल मोद भरो, यह धर्म का मर्म बताकर के, कहाँ चले गए नरनारी दौड़े आते थे, मानों कोई नवनिधि पाते थे, अनुपम गुरु मंत्र सुना करके, कहाँ चले गए संथारा तेला सहित लिया फिर पंडित मरण का वरण किया, एक नया बना इतिहास यहाँ, कहाँ चले गए. हम मोक्ष को लक्ष्य बना पावें, सुदृढ कदमों से बढ़ते जावें, है यही भावना 'गौतम' की, कहाँ चले गए.
(२३) गुरु की दिव्य-साधना
(तर्ज - बड़ी देर भई नन्दलाला...) गुरु 'हस्ती' दीन दयाला, जीवन था भव्य निराला दिव्य साधना से जिनके अन्तर में भया उजाला रे ॥टेर॥ कभी न उलझे मोह-माया में, भौतिकता से दूर रहे लघुवय में ही सन्त बने और तप संयम में शूर रहे। बीस वर्ष की अल्पायु में , पद आचार्य संभाला रे॥गुरु ॥ कोई न खाली हाथ लौटता द्वार आपके जो आता सामायिक स्वाध्याय नियम के कुछ मोती वह पा जाता। कई दुःखी व्यसनी थे उनको व्यसन मुक्त कर डाला रे ॥गुरु ॥ कहीं मिटाई फूट कहीं पर जीवों के बलिदान रुके, कहीं किया निर्भय लोगों को, कहीं विरोधी आन झुके। कहीं जुड़ी विद्वत् परिषद् तो कहीं धार्मिक शाला रे ॥गुरु ॥ जिन शासन की रक्षा के हित, स्वाध्यायी तैयार किए फिर से जागी नई चेतना, कई ऐसे उपकार हुए। पल-पल याद करेगी जनता, कैसा जादू डाला रे ॥गुरु ॥
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