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________________ प्रथम खण्ड दानमलजी बोहरा एवं उनके परिवारजनों ने न जाने कितने स्वप्न संजोये होंगे, एक ही पल में वे धराशायी हो गए। परिवार के मुखिया श्री दानमलजी बोहरा का आकस्मिक निधन हो गया। परिवार पर एक भीषण वज्रपात हुआ। पत्नी नौज्यां बाई पर यह असह्य आघात था। अभी दोनों पुत्रों रामलालजी एवं केवलचन्दजी का विवाह भी नहीं हुआ था। परिवार के अनेक कार्य शेष थे। किन्तु संसार में यह जीवन कब धोखा दे जाय, कुछ भी नहीं सोचा | जा सकता। बड़े पुत्र रामलालजी ने हिम्मत से काम लिया और अपनी सूझबूझ से पैतृक व्यवसाय का कार्य सम्हाला । स्वयं दुकान पर बैठना प्रारम्भ किया तथा अनुज केवलचन्दजी को उगाही के लिए भेजने लगे। माता नौज्यांबाई पुत्रों की सक्रियता को देखकर राहत की सांस लेती। कभी उन्हें सत्संस्कार और हिम्मत का पाठ पढ़ाती, तो कभी उनके भविष्य के सम्बन्ध में विचार करती। शनैः शनैः रामलालजी की योग्यता समाज के अग्रणी लोगों को लुभाने लगी। उनका विवाह प्रतिष्ठित परिवार में सानन्द सम्पन्न हुआ। बोहरा परिवार में खुशियां छा गईं। माता नौज्यांबाई के दुःख को बांटने वाली वधू का घर में आगमन हुआ। परिवार में अब चार सदस्य हो गए थे। उत्साह एवं समृद्धि का पुनः संचार हो रहा था। पीपाड़ में रामलालजी बोहरा का घर सबकी आंखों में प्रतिष्ठा बढ़ा रहा था। प्रकृति को यह सब स्वीकार्य नहीं था। बोहरा परिवार पर पुनः आकाश फट गया। परिवार-संचालन में अग्रणी एवं दक्ष रामलालजी का असामयिक देहावसान हो गया। यह घटना न केवल इस परिवार के लिए, अपितु सम्पूर्ण पीपाड़ के लिए अविश्वसनीय थी। कोई सोच भी नहीं सकता था, कि संकट से उबरते हुए इस परिवार पर पुनः भीषण कष्ट के बादल मंडरा जायेंगे। इस दर्दनाक घटना को न माता नौज्यां बाई सहन कर सकती थी और न ही नवविवाहिता वधू । लघु भ्राता केवलचन्दजी पर बहुत बड़ी जिम्मेदारी आ पड़ी। वे सुबक सुबक कर स्वयं आँसू बहायें, या माता और भाभीजी को ढांढस बंधायें, कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। नौज्यांबाई ने पहले अपना पति खोया, अब बड़ा पुत्र चल बसा। दो-दो आघात सहने की ताकत कहाँ से | लाए? धर्म के प्रति आस्था ने ही उन्हें यह हिम्मत दी। पुत्र केवलचन्द के प्रति अपनी कर्तव्य भावना को समझा। पुत्रवधू को भी हिम्मत देने वाली वही थी। नवोढा पुत्रवधू के वैधव्य का दुःख अकल्पित था। अभी उसके कोई सन्तान भी नहीं थी। पुत्रवधू के स्वप्नों का संसार मानो एक ही क्षण में टूट चुका था। उसके लिए अब संसार में आकर्षण का कोई कारण नजर नहीं आ रहा था। संसार से विरक्ति में ही अब उसे अपना लक्ष्य दिखाई दे रहा था। मन में यह विचार दृढ़ हो गया कि अब उसे गृहस्थ-जीवन का त्याग कर श्रमणी-जीवन को अंगीकार कर लेना चाहिए। यदा-कदा पीपाड़ में सन्त-सतियों के समागम के कारण केवलचन्दजी की विधवा भाभी के वैराग्य का बीज अंकुर के रूप में परिणत होने लगा। वृद्धा सास, देवर केवलचन्दजी एवं परिवारजनों ने खूब समझाया, किन्तु दृढ़ मनोबला को अपना हित श्रमणी-धर्म अंगीकार करने में ही दिखाई दिया। “सम्पूर्ण जीवन वैधव्य के दुःख में काटने की अपेक्षा तो वैराग्य की गंगा में स्नान करते हुए पंच महाव्रतों का पालन सर्वोत्कृष्ट है" - इस तथ्य से परिवारजन भी परिचित थे। अतः रामलालजी की विधवा पत्नी के दृढ़ निश्चय के समक्ष सबको झुकना पड़ा और एक दिन आचार्य श्री जयमलजी म.सा. की परम्परा में वे मुण्डित हो गईं। अब स्व. दानमलजी बोहरा के परिवार में नौज्यांबाई और पुत्र केवलचन्द ये दो ही सदस्य रह गए थे। माता को पुत्र का एवं पुत्र को माता का सम्बल रह गया था। केवलचन्द जी ने अपने भाई के द्वारा संचालित कारोबार को
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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