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________________ तृतीय खण्ड : व्यक्तित्व खण्ड ७०३ - - गुरु-गजेन्द्र-गणि-गुणाष्टकम् श्री गजसिंह राठौड़ (वसन्ततिलकावृत्तम्) (१) हे तात ! हे दयित! हे भुवनैकबन्धो ! शोभानिधे ! सरल! हे करुणैकसिन्धो ! त्वामाश्रितो गुरु - गजेन्द्र जगच्छरण्य ! मां तारयाशु भवधेस्तु भवाब्धिपोत ! हे प्राणाधिक वल्लभ तात ! हे त्रिभुवन के एकमात्र बन्धो ! हे शोभा के सागर ! हे नितान्त सरल ! करुणा के अथाह सिन्धु ! संसार के सचराचर प्राणिवर्ग को शरण प्रदान करने वाले गुरुवर गजेन्द्र ! (श्री हस्तिमलजी महाराज साहब) मैं आपकी शरण में आया हूँ। हे भवसागर से पार उतारने वाले महान् जहाज ! मुझे शीघ्र ही संसार-सागर से पार उतारिये। स्वाध्यायसंघ - सहधर्मिसमाज - सेवा, सिद्धान्त - शिक्षणविधौ विविधोपदेशः । अध्यात्मबोधनपरास्तव शंखनादाः गुञ्जन्ति देव ! निखिले महीमण्डलेऽस्मिन् ॥ हे गुरुदेव ! स्वाध्याय संघ, सहधर्मि-वात्सल्य, समाज-सेवा एवं शास्त्रों के शिक्षण के सम्बन्ध में आपके विविध | | विषयों के उपदेश और अध्यात्म-भाव को प्रबुद्ध कर देने वाले आपके शंखनाद इस सम्पूर्ण महीमण्डल में गूंज रहे हैं। (३) क्षोण्या सदा तिलकभूतमरोर्धरायाम् , राठोडवंशक्षितिपैः परिपालितायाम्। रूपा-सती-तनय ! केवलचन्द्रसूनो ! जन्माभवत् तव कले: मदभञ्जनाय ।। हे रूपासती के लाल-श्री केवलचन्द्रजी के आत्मज ! आपका जन्म कलिकाल के प्रभाव को निरस्त करने के | लिये राठोड़ वंश के राजाओं द्वारा सुशासित-सुरक्षित सदा सकल महीमण्डल की तिलक स्वरूपा मरुभूमि में हुआ। तिर्यक् - नृ - नारक-निगोद- सुरासुराणां, बंभ्रम्य योनिनिवहेषु चिरौघकालम् । पूर्वार्जितैः शुभतरैर्गणिवर्यपुण्यैः, लब्धास्ति ते चरणरेणु - पुनीत- सेवा ॥
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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