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________________ तृतीय खण्ड : व्यक्तित्व खण्ड ६५९ के लिये प्रेरित किया था। इंदौर में पंडित पूर्णचंद्र जी के पास रहकर मैंने कलकत्ता संस्कृत महाविद्यालय की विशारद। | की परीक्षा उत्तीर्ण की और हितेच्छु श्रावक संघ रतलाम की सिद्धांत विशारद की परीक्षा उत्तीर्ण की। यह गुरुदेव की ही कृपा और प्रेरणा का प्रसाद है कि मैं सिद्धर्षिगणि के उपमिति भव प्रपंच कथा जैसे महान् ग्रंथ का हिंदी में अनुवाद कर सका और लालभाई दलपत भाई भारतीय संस्कृतिविद्यामन्दिर, अहमदाबाद में रहकर प्राचीन हस्तलिखित प्रतियों में लोंकाशाह सम्बन्धी उल्लेखों का अन्वेषण आदि कार्य कर सका। उन्हीं की कृपा से मैं मध्यप्रदेश जैन | स्वाध्याय संघ की स्थापना एवं श्री महावीर जैन स्वाध्याय विद्यापीठ जलगाँव के संचालन में सहयोगी बन सका । आचार्य श्री हस्ती की दिनचर्या को मैंने निकट से देखा है. प्रात:काल या संध्या के समय उनके समक्ष बैठकर भक्तामर या कल्याणमंदिर स्तोत्र की अथवा नन्दीसूत्र की सज्झाय को श्रवण करने में जो अलौकिक आनंद प्राप्त होता था, उसका वर्णन करने की शक्ति लेखनी में नहीं है। मैंने कभी उनको एक क्षण के लिये भी खाली बैठे नहीं | देखा । प्रात: काल से सूर्यास्त तक उनका अध्ययन और लेखन कार्य निरंतर चलता ही रहता था। ऐसे महान् | अध्यवसायी विद्यानुरागी वे स्वयं थे और ऐसा ही विद्यानुराग वे उनके संपर्क में आने वाले व्यक्तियों के मन में भर देते थे। मैं तो आज जो कुछ भी हूँ वह गुरुदेव की कृपा का ही प्रसाद है । यदि गुरुदेव ने मुझे शरण न दी होती, तो मेरे भूमिगत जीवन का सदुपयोग कैसे हो पाता और उनकी सहायता के बिना मैं जैन दर्शन, प्राकृत, संस्कृत, गुजराती का अध्ययन कैसे कर पाता ? ऐसे महान् गुरुदेव को शत शत प्रणाम ! -१० / ५९५ नन्दनवन, जोधपुर
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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