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संयम-साधना का सुमेरु
• श्री मिट्ठा लाल मुरड़िया, 'साहित्यरत्न' सन्ध्या का समय था, सूर्य अस्ताचल की ओर भाग रहा था, गगन स्वच्छ था, तारों की चमक के साथ | निशानाथ शीतलता विकीर्ण करने वाले थे, सतरंगी इन्द्र धनुष तना था, रिमझिम-रिमझिम मोती के कण धरा पर | बिखर रहे थे। चम्पा, चमेली और गुलाब खिलखिला रहे थे, उनकी सौरभ से सारा वायुमण्डल महक रहा था, देव दुन्दुभियाँ बज रही थी, सितार के तार झन झना रहे थे, वीणा गूंज रही थी, देव मन्दिरों में आरती के साथ पूजा सम्पन्न हो रही थी । उस समय आकाश से एक ध्वनि गूंज उठी - 'सुखी रहे सब जीव जगत के, कोई कभी न घबरावे' यह ध्वनि महाप्रतापी आचार्य श्री हस्तीमलजी म.सा. के अन्तरतम में समा गयी। दया-करुणा-सेवा और समता से भरा हुआ यह आचार्य संयम-साधना के शिखर पर पहुँच गया था। भीमकाय पाषाण-खण्ड पर बैठकर यह संत सत्-चित्-आनन्द लुटा रहा था।
सादड़ी साधु-सम्मेलन के प्रथम दर्शन से ही मैं उनके महान् व्यक्तित्व से आकर्षित होकर नत मस्तक हो गया था। जिनवाणी में प्रकाशित - 'मैं भी काला हूँ'- निबन्ध पर मेरा नाम भी जिनवाणी के सम्पादक-मण्डल में जुड़ गया। व्यक्ति को पहचानने की उनमें अद्भुत शक्ति थी। उनके व्यक्तित्व में एक चमक और अनूठापन था। उनकी आकृति पर एक आभा व्याप्त थी। जैसा सुना था, इस संत को वैसा ही पाया। मेरे मानस में उनके प्रति असीम श्रद्धा उमड़ पड़ी। उनके प्रभाव से मेरा जीवन बदल गया।
ज्ञान-दर्शन और चारित्र से यह आचार्य जगमगा रहा था। सत्यं-शिवं-सुन्दरम् की मरकत मणियों से यह आलोकित हो रहा था। यह मनमौजी स्वभाव का जागरूक धर्म-प्रहरी था, यह सोते हुए भी जागृत था। इस आचार्य का न किसी से लेना था न किसी का देना था, न किसी की निन्दा के चक्कर में पड़ा, न किसी की प्रशंसा में बहा। न कोई प्रपंच, न कोई छल-छद्म, न कोई समस्या, न कोई आडम्बर ।
यह आचार्य स्वच्छ, निर्मल और मंगलमय था। यह आचार्य धर्म में डूबा हुआ और प्रेम में पगा था। एकता | इसका सम्बल था। सामायिक - स्वाध्याय इसका नारा था। इस आचार्य में एक तेज था। यह जो कहता था, वही हो
जाता था। यह चमत्कारी पुरुष था। जो एक बार इससे दृष्टि मिला लेता, वह निहाल हो जाता था। सन्त समुदाय पर | | इसका जबरदस्त प्रभाव था। यह साधना का सरताज था, स्वाध्याय का बादशाह था, धर्म के अनन्त उपादानों से यह तृप्त था, संयम - साधना की अपनी साहसिक विचार सरणियों से यह गौरवान्वित हुआ था।
इसके सम्मुख कितने आये और कितने गये, कितने उठे और कितने गिरे। कितने बने और कितने बिगड़े। कितने शिखर पर पहुँचे और कितने भू-लुण्ठित हुए। मगर यह व्यक्तित्व अपनी आन-बान और श्रमणत्व की शान के साथ उसी विचार-पद्धति पर अडिग रहा, दृढ़ता इसका साथ देती गई।
लोक जीवन को जगाया-इस दूरदर्शी संत को समाज का भविष्य दीख रहा था। इसका मानना था कि अभी वाली पीढ़ी पर सामायिक और स्वाध्याय करने के संस्कार नहीं पड़े तो भावी पीढ़ी की क्या दशा होगी ? वह दिशाहीन होकर भटकती रहेगी। इसीलिए इस संत ने लोक-जीवन को जगाया और उसमें धर्मनिष्ठा पैदा की। यह संत विलक्षण प्रतिभा का धनी था। इसका व्यक्तित्व वीरवाणी से अलंकृत था। जो व्यक्ति एक बार इसके सम्पर्क