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________________ नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं ६३६ एक वरिष्ठ स्वाध्यायी हैं, यह स्थान कैसे चयन किया? मेरी स्थिति पुन: पुन: सीढियाँ चढ़ने उतरने की नहीं है, जब कि लघुनीत आदि देवालय की मर्यादानुसार यहाँ के परिसर में भी नहीं किया जा सकता। तदनन्तर आचार्यप्रवर ने उस साताकारी स्थान पर न ठहर कर एक सामान्य बाड़े में जो बस्ती से भी दूर था, जाकर रात्रि विश्राम किया। (३) चारित्र-साधना के चूडामणि - आप अहर्निश, अप्रमत्त भाव से, सदा ज्ञान-ध्यान, जप-तप, मौन-लेखन आदि में ही साधना रत रहते थे। जो भी आपके सम्पर्क में एक बार भी आता, आपके तेजस्वी व्यक्तित्व एवं चारित्र से प्रभावित हुए बिना नहीं रहता था। आचार्यप्रवर का अधिकांश रात्रि काल भी, ज्ञानध्यान, सूत्र-स्वाध्याय, माला, जप आदि में ही व्यतीत होता था और बहुत अल्प समय आड़ा आसन करते थे। आपकी इस अप्रमत्त साधक -चर्या से प्रभावित हो, अन्य सम्प्रदायों के व अजैन गण भी आपके श्रद्धानिष्ठ भक्त हो गये थे। उदाहरण के लिए टोंक के ही मन्दिरमार्गी समाज के एक प्रमुख श्रावक श्री बहादुर मलजी दासोत (जो जयपुर रहने लगे थे), आपके ज्ञान, ध्यान व |चारित्र की प्रशंसा सन. लाल भवन , जयपुर में दर्शनार्थ आने लगे थे। वे कार्य व्यस्तता से कभी रात्रि के ग्यारह बजे तो कभी प्रात: चार बजे भी (जब समय मिल जाता) दर्शनार्थ लाल भवन पहुँचते तो सदा आचार्य श्री को पाट पर | विराजे, साधनरत पाते थे। इससे वे बड़े प्रभावित हुए और आपके निष्ठावान भक्त बन गए थे। (४) दिव्य तपोमूर्ति - आपकी तप साधना अपने आपमें बेजोड़ थी। यद्यपि आप बाह्य तप उपवास आदि विशेष नहीं करते थे, तथापि आपका समग्र जीवन प्रतिसंलीनता व आभ्यन्तर तप स्वाध्याय, ध्यान, कायोत्सर्ग, जप व मौन साधना आदि से परिपूर्ण एक आदर्श तपोमूर्ति रूप था। परिणामत: आपके जीवन में अनेक लब्धियाँ अप्रगट रूप से विकसित हो गयी थीं। जहाँ, जब जिस पर भी आपकी तनिक महर नजर होती, तो उसकी मनोकामना स्वत: ही शीघ्र पूर्ण हो जाती थी। आप पर यह उक्ति सर्वथा घटित होती थी - “फकीरों की निगाहों में, अजब तासीर होती | है। निगाहे महर कर देखे, तो खाक अक्सीर होती है।" _आपकी तप-साधना की विशेष लब्धियों की अनेक घटनाएँ जग जाहिर हैं। जैसे आप सुदूर विराजित होते हुए भी निश्चित समय पर, आपका मांगलिक सैंकड़ों किलोमीटर दूर रहते भी श्रद्धापूर्वक मनोभाव से परोक्ष श्रवण करने पर भक्तों के विविध दुःख व असाधारण रोग भी चिकित्सा कराए बिना दूर हो जाते थे। ऐसे अनेक उदाहरण हैं। यहाँ लब्धि विशेष की प्रतीक कुछ घटनाएँ प्रस्तुत हैं___(क) टोंक में पशु बलि को रुकवाना – एक बार आप टोंक से निवाई होते, जयपुर पधार रहे थे। निवाई के निकट आपने मुंडिया ग्राम में विश्राम किया। वहाँ के निवासियों से आपको मालूम हुआ कि वहाँ पर प्रतिवर्ष रामनवमी को बणजारी देवी के मंदिर में पाडे की बलि चढाई जाती है। आपका नवनीत सम संत हृदय, यह कब बरदाश्त कर सकता था। आपने तत्काल सभी ग्राम वासियों को एकत्रित कर, उक्त पशु बलि न करने का एक | तेजस्वी उद्बोधन दिया। आचार्यप्रवर के तपो तेजोमयी उद्बोधन से प्रभावित हो, वहाँ आए अधिकांश ग्रामीणों ने बलि | न करने का संकल्प ले लिया। किन्तु कुछ असामाजिक तत्त्व, इसके लिये सहमत नहीं हुए। तब आचार्य देव ने मुझे (जो विहार में साथ था) संकेत दिया। मैं, टोंक आकर जिला कलेक्टर व अन्य प्रशासनिक अधिकारियों से मिला। जीव दया ट्रस्ट की तरफ से उन्हें ग्राम मुंडिया में नियम विरुद्ध होने वाली पशु बलि को रोकने का ज्ञापन दिया। आचार्य देव के आशीर्वाद से तत्काल इस बलि को रुकवाने के आदेश जारी कराने में सफलता मिल गयी। पिछले लगभग १२-१३ वर्षों से यह पशु बलि प्रतिवर्ष राज्यादेश जारी कराकर रोकी जा रही है। (ख) हृदय रोग से मुक्ति-लगभग तीस वर्ष पूर्व की घटना है। मेरी धर्म सहायिका श्रीमती सुशीला देवी
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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