SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 696
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विश्व के देदीप्यमान सूर्य : गुरु हस्ती श्री चंचलमल चोरड़िया • बहु आयामी व्यक्तित्व के धनी बहु आयामी व्यक्तित्व के धनी, मेरे जीवन को संस्कारित बनाने वाले युग द्रष्टा, युग निर्माता, युग पुरुष, ज्ञानी, ध्यानी, मौनी, साहसी, धीर, वीर, गंभीर, वचन सिद्ध विरल विचक्षण, सामायिक स्वाध्याय के प्रेरक, परम श्रद्धेय आचार्य श्री हस्तीमल जी महाराज साहब के जीवन की इतनी विशेषताएं थी कि किन-किन का स्मरण करूँ । आचार्य श्री का जीवन आत्म-कल्याण के साथ-साथ प्राणिमात्र के कल्याण हेतु समर्पित था। आचार में दृढ़ता, | विचारों में उदारता, ज्ञान एवं क्रिया का बेजोड़ समन्वय, गुणियों के प्रति प्रमोद भाव तथा कथनी करनी में एकरूपता थी । नियमित मौन साधना, स्वाध्याय, ध्यान, अप्रमत्त जीवन के आप प्रतीक थे। कब, क्या, कितना और कैसे बोलना | इस कला में वे बहुत निपुण थे । निन्दा विकथा से वे सदैव दूर रहते थे। उनका मानना था कि जीवन निंदा से नहीं | निर्माण से निखरता है। जहां आपका हृदय नवनीत सा कोमल था, वहीं संयम पथ पर आप चट्टान की भांति अडोल | थे। सम्प्रदाय विशेष के आचार्य होते हुए भी असाम्प्रदायिक मनोवृत्तियुक्त एवं व्यवहारकुशल थे । सभी वर्ग, सम्प्रदाय, धर्म एवं जाति के लोग बिना भेदभाव आपके मार्ग-दर्शन एवं प्रेरणा से अपने जीवन का | विकास करते थे । आपने कभी भी अन्य सम्प्रदायों के भक्तों को तोड़कर अपने श्रद्धालुओं की संख्या बढ़ाने का | प्रयास नहीं किया। वे धर्म को कभी किसी पर नहीं थोपते, परन्तु सरल ढंग से धर्म के स्वरूप को प्रतिपादित करते । | वे नियमबद्ध जीवन के बड़े हामी थे । अतः जो भी उनके सम्पर्क में आता, उसे निःसंकोच सेवा, सामायिक, स्वाध्याय, | व्यसन मुक्ति आदि के साथ व्यक्ति की योग्यता, सामर्थ्य के अनुसार धार्मिक, सामाजिक, आध्यात्मिक क्षेत्र में | नैतिकता को बढ़ावा देने की प्रेरणा देते और जनसाधारण के जीवन-निर्माण हेतु आप सतत प्रयत्नशील रहते और नियम दिलाते । पात्र में रही योग्यता को पहचानने में आप बड़े सिद्धहस्त थे। जैसी पात्रता देखते उस व्यक्ति को उसी क्षेत्र में अध्यात्म के साथ आगे बढ़ने की प्रेरणा देते, जिससे सम्पर्क में आने वाला प्रत्येक श्रद्धालु अत्यधिक प्रसन्नता और शांति का अनुभव करता। आपकी प्रेरणा इतनी हृदयस्पर्शी होती, जिससे आपके द्वारा कराया गया व्रत, | नियम व्यक्ति को भारभूत नहीं लगता। कब, क्या, क्यों, कितना और कैसे बोलना, इस कला में वे बहुत निपुण थे । छोटी छोटी बातों में जीवन की समस्याओं का समाधान कर देते थे । निर्भयता की मूर्ति अज्ञान ही सभी दुःखों का मूल कारण है एवं जितना - जितना साधक सम्यग्ज्ञान के समीप पहुँचता है उसे | भेद-विज्ञान होने लगता है। वह निर्भय बन जाता है एवं प्राणों का मोह छूट जाता है। आचार्य श्री के जीवन-काल में | सर्प का जीवन बचाने के दो प्रसंग आये । सर्प को तो सभी अहिंसक विचारधारा वाले बचाना चाहते हैं, परन्तु जब | तक स्वयं के प्राणों का मोह नहीं छूटता, सर्प को गले नहीं लगाया जा सकता। आचार्य ने सर्प को अपनी झोली में | डाल लिया । इतने निर्भय थे हमारे श्रद्धास्पद आचार्य श्री ।
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy