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तृतीय खण्ड : व्यक्तित्व खण्ड
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होकर गिर पड़े। फिर तुरंत ही संभले और आचार्य श्री के चरणों में मस्तक झुकाकर बोले, “ऐसी अद्भुत वाणी, ये रूहानी बोल तो मैंने जीवन में कभी नहीं सुने ।”
सच ही तो है महापुरुष किसी एक सम्प्रदाय एवं धर्म से प्रतिबंधित नहीं होते हैं । सम्पूर्ण विश्व के प्राणी ही नहीं, अपितु प्रकृति भी उनकी पुजारी होती है । आप्त पुरुषों की वाणी विश्व के प्राणिमात्र के उत्थान के लिए होती है ।
मीणा लोगों की भक्ति
सवाईमाधोपुर क्षेत्र में विचरण करते हुए आचार्यप्रवर अलीनगर नामक गांव में पहुंचे, जहां २५ घर मीणा जाति के थे और वे सभी जैन धर्मावलम्बी थे। दोपहर मे रंग बिरंगे परिधानों में गांव की महिलाएं हाथों में रेत की | घडियाँ लेकर सामायिक करने आयीं । आचार्य ने उन्हें पानी कैसे छानना चाहिये, परिवार में कैसे रहना चाहिये आदि बातें बतायी व धारणा के लिये पच्चक्खाण करवाये। गुरुदेव के सदुपदेशों से मीणा जाति के लोगों में इतना | परिवर्तन आ चुका था कि हमें लगा कि ये लोग सचमुच जैन ही हैं।
यहां से विहार कर दूसरे दिन आचार्य श्री उखलाना पहुंचे । उखलाना ब्रजमोहन का गांव था, अतः ब्रजमोहन ने आचार्य श्री के साथ चलने वाले संघ की बहुत ही आवभगत की। लगभग २०० - ३०० आदमियों का भोजन | सत्कार किया। मीणा जाति का गुरुदेव के प्रति आदर-सत्कार देखते ही बनता था ।
जिनवाणी बन्द नहीं हुई
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जिनवाणी मासिक पत्रिका की वार्षिक बैठक जयपुर में हुई। जिनवाणी में इस समय कोई फण्ड नहीं था व खर्च बहुत ही ज्यादा था । खर्चे की पूर्ति की व्यवस्था जब मीटिंग में नहीं हो सकी तो पत्रिका को बन्द करने का
प्रस्ताव रखा गया।
हम आचार्य श्री की सेवा में पहुंचे और सारी बातें उनके समक्ष रखी। गुरुदेव ने मुझे नथमल जी हीरावत से मिलने का संकेत किया ।
मैं हीरावत सा. के पास गया तो उन्होंने जिनवाणी का कार्य सम्हालना स्वीकार किया।
उस दिन से आदरणीय श्री हीरावत जी हमेशा के लिये जिनवाणी एवं सम्यग्ज्ञान प्रचारक मंडल आदि संस्थाओं से जुड़ गये । यह था गुरुदेव का अलौकिक प्रभाव ।
• वह अविस्मरणीय रात्रि
महाराष्ट्र में विचरण करते समय विहार में गुरुदेव के साथ था। एक गांव में जहां एक भी जैन घर नहीं था, | गुरुदेव एक माहेश्वरी सज्जन के घर में विराजे । वहां काफी दर्शनार्थी आये, उनकी भोजन-व्यवस्था भी उन्हीं सज्जन ने बड़ी ही आत्मीयता के साथ की। शाम को गुरुदेव ने उस गांव से विहार कर दिया। पांच सात किलोमीटर चलने पर जब दिन थोडा ही रह गया था तब गुरुदेव सभी संतों के साथ एक वट वृक्ष के नीचे विराज गये। सभी संतों ने अपनी अपनी शय्याएं बिछाली ।
मैंने भी अपना बिस्तर लगा लिया। प्रतिक्रमण के बाद का समय ज्ञान - चर्चा में गुजरा। यह मेरा पहला अवसर था जब सन्तों को मैंने वट वृक्ष के नीचे रात्रि शयन करते देखा और स्वयं ने भी रात्रि शयन वट वृक्ष के नीचे