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________________ अद्भुत योगी और महामनस्वी . श्री विमलचन्द डागा (१) पुराने समय यातायात के साधन बहुत सीमित थे। जयपुर क्षेत्र पधारने हेतु संतों को बड़ा परीषह सहन करना पड़ता था। पुराने श्रावक कहते थे कि संतों को दूदू से तेला पचख कर आना पड़ता था। आचार्य प्रवर पधारते तो जयपुर के प्रमुख श्रांवक भांकरोटा (जयपुर से १३ किमी) तक अमूमन विहार सेवा किया करते थे। आचार्य भगवन्त के भांकरोटा पधारने पर एक बार गुलाब चन्द जी डागा की दादी, श्री सरदारमलजी डागा की मां एवं श्री घेवरचन्दजी डागा की पत्नी, आचार्य भगवन्त के दर्शनार्थ भांकरोटा गईं। श्री घेवरचन्द जी डागा की पत्नी मीठा मां सा. के नाम से प्रसिद्ध थी , शरीर से बहुत स्थूल थी, पांवों में हाथों में जगह-जगह गांठे थीं, चलना फिरना बहुत मुश्किल से हो पाता था। श्रद्धा के वशीभूत दर्शन करने वे भी भांकरोटा गई। सहज ही आचार्य श्री ने पूछा - मीठा मां सा. धर्म करणी कैसी चल रही है ? तो मीठा मां. सा. बोले-" बाबजी ! शरीर साथ नहीं देता। जगह - जगह हाथ पाँव में गाँठे हो रही हैं, चला नहीं जाता।” तो आचार्य भगवन्त ने फरमाया -"इन गांठों को भांकरोटा के टीलों में ही क्यों नहीं छोड़ जाते हो?” (उस समय भांकरोटा में मिट्टी के टीले ही टीले थे) श्रद्धाशील मीठा मांसा जिनको घेवरानी जी भी कहते थे, तत्काल ही बोले -"बाबजी, आपने कहा और मैंने ये गांठें टीले में ही छोड़ दीं।" देखते-देखते ही मीठा मां सा पूर्ण स्वस्थ हो गईं एवं वर्षों धर्म-साधना में अनुरक्त रहीं। यह थी भगवन्त की वाणी की महत्ता एवं पुरानी श्राविका की श्रद्धा का रूप। यह प्रसंग मैंने अपने भुआसा (श्रीमती जतन कंवर जी धारीवाल) से सुना, जो वर्तमान में ९० वर्ष की अवस्था (२) इचरज कंवर जी लुणावत की १६५ दिवस की तपस्या के समय आचार्य श्री का जयपुर पधारना हुआ। उस तप-समारोह में केन्द्रीय मंत्री श्री जगजीवन राम जी भी उपस्थित थे। आचार्य भगवन्त ने अपने प्रवचन में फरमाया कि आज शासक वर्ग को गांधी के सिद्धान्तों पर चलकर देश का वातावरण शुद्ध बनाना चाहिये। अभी आप लोग गांधी की कमाई खा रहे हो। __इस पर श्री जगजीवनरामजी नाराज होकर अपने वक्तव्य में बोले कि आप लोग भी महावीर की कमाई खाते हो। उन्होंने अच्छे शब्दों का प्रयोग नहीं किया तो हजारों की संख्या में उपस्थित जनसमूह में रोष व्याप्त हो गया। भीड़ श्री जगजीवनराम जी का कुछ भी कर सकती थी। ऐसी अवस्था को देखकर तथा ध्यान का समय भी नजदीक आया जानकर आचार्य श्री माहौल न बिगड़े, इसलिए तुरन्त वहां से पधार गये। हम सभी युवाओं के मन में बडी अशान्ति थी। रात को दर्शन करने भगवन्त के चरणों में पहुंचे। उनसे | निवेदन किया कि भगवन् ! आपके बारे में बहुत सुना कि देवता आपकी सेवा करते हैं। आपके पास अनेक लब्धियाँ हैं, आज आपने महादेव की भांति तीसरा नेत्र खोल क्यों नहीं दिया? करुणा सिंधु , क्षमासागर भगवन्त बोले- “भोलिया ! बैठे बैठे ही क्यों पंचेन्द्रिय जीव की हत्या का पाप मोल
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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