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(तृतीय खण्ड : व्यक्तित्व खण्ड
पूज्यप्रवर के जीवन के अनेक संस्मरण याद आते हैं, किन्तु अन्तिम बात यही है कि वे साधना के प्रति सदैव जागरूक रहे। पात्र की क्षमता देखकर ही आप उसे नियम, प्रत्याख्यान दिला कर आगे बढ़ाते थे। आप आत्म-रमणता के साथ प्राणिहित के लिए भी तत्पर रहे।
आचारनिष्ठ होने के साथ आप उदार प्रवृत्ति में आस्था रखते थे। आप प्रचार को नहीं, आचार को महत्त्व देते थे। स्वाध्याय का मुझे शौक था। मैं कभी जैनेतर आध्यात्मिक साहित्य भी पढ़ता तो वे यही देखते कि इस स्वाध्याय से जीवन में विकास हो रहा है। आप उदार, निर्भीक एवं उच्च कोटि के साधक थे। आप शरीर से नहीं हैं, किन्तु आपकी वाणी समाज में विधान के रूप में सदैव आदर पाती रहेगी।
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