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________________ कृपासिन्धु गुरुदेव : मम कोटि प्रणाम • श्री ज्ञानेन्द्र बाफना मैं अपने आपको अत्यन्त सौभाग्यशाली समझता हूँ कि इस जन्म में पूज्यपाद आचार्य हस्ती जैसे महा मानव से संस्कार प्राप्त करने का सौभाग्य मिला। बचपन से ही उनके श्री चरणों में बैठने का, किशोर वय में ही उनके कृपा-प्रसाद से संघ से जुड़ने का व अध्ययन काल में ही संघ का कार्यकर्ता बनने का सौभाग्य मिला। उन कृपा-सिन्धु की स्नेहिल आँखों से बरसते अमिय सान्निध्य से सुलभ अनिर्वचनीय आनन्द, हृदय के कोने-कोने में | बसी मंगल-कामना का कृपा प्रसाद सदा-सदा मिला, पर उनके पदार्पण के बाद ही अनुभव कर पाया कि उन चरणों में बैठना कितना सुखद था। आज जब उन महामनीषी के चरणारविन्दों में बिताये क्षणों का , उन अकारण करुणाकर की कृपा-दृष्टि का स्मरण करता हूँ तो अनुभव होता है कि उन महापुरुष ने इस नादान, अबोध, अपात्र बालक पर भी जो अमिय वर्षा की, मैं उसके योग्य तो न था। उन कशल कलाकार के स्नेहसिक्त हाथों का आशीर्वाद पाकर भी उनकी अपेक्ष अनुरूप अपने जीवन को न ढाल पाया, उन महामानव की विराट्ता का बोध न पा सका, यह मेरी अपनी कमजोरी ही तो है। काश बाल्यकाल में ही मैं अपने आपको सर्वतोभावेन जीवन पर्यन्त के लिये उनके चरणों में समर्पित कर देता,तो प्रतिपल उनका सान्निध्य पाकर अपने आपको साधना मार्ग में आगे बढ़ा कर जीवन-लक्ष्य को सिद्ध कर पाता। बचपन से ही जब-जब पूज्य गुरुवर्य के भोपालगढ़ (मेरी जन्म-भूमि) पधारने का प्रसंग होता, मैं भी अपने पिताश्री के साथ सामने जाता, जब आपका विहार होता, अगले गांव तक विहार सेवा का लाभ भी लेता। तब से | उन पूज्यपाद के सान्निध्य में जो-जो क्षण बीते, वे जीवन की अनमोल थाती हैं। (१) सन् १९६८ में मैंने हायर सैकेण्डरी परीक्षा मध्यप्रदेश बोर्ड से दी थी, भ्रान्तिवश मुझे सूचना प्राप्त हुई कि मै अनुत्तीर्ण हूँ। हृदय को आघात लगा, सहज उदासी छा गई। जहाँ तक स्मरण में है, भगत की कोठी रेलवे स्टेशन के क्वार्टर्स में आप विराज रहे थे। मैं दर्शनार्थ पहुँचा। पूज्यपाद ने सहज पूछा - “फूल कुम्हलाया क्यों है ?” मैंने निवेदन किया-“भगवन् ! फूल कुम्लाया ही नहीं है, मुरझाने वाला है।” तत्काल आपने आश्वस्त करते हुए फरमाया - “घबराना नहीं, रात्रि के बाद दिन, यह प्रकृति का अटल नियम है।” कहना न होगा - तीन दिन बाद ही मुझे डाक द्वारा मेरी मार्क-शीट प्राप्त हुई, सभी विषयों में मेरे विशेष योग्यता के अंक थे। (२) जोधपुर चातुर्मास में एकदा आपने मुझे प्रेरणा देते हुए फरमाया कि ईसाई मिशनरी में जिस सेवा-भावना से यीशू की सेवा में समर्पित होकर जीवनदानी कार्यकर्ता बनते हैं, उसी भावना से तुम ब्रह्मचर्य धारण कर शासन हितार्थ समर्पित हो जाओ, तो मुझे विश्वास है कि बस्तीमल (मेरे पिताश्री) कभी मना नहीं करेगा। मैंने प्रत्युत्तर में | समाज की विषम स्थिति व कार्यकर्ताओं के मान-सम्मान की स्थिति अर्ज की, तो भगवन्त ने दूसरे दिन प्रवचन ही | इस विषय पर देते हुए फरमाया कि मेरे भक्त ऐसा कहते हैं। आपने समाज को कार्यकर्ताओं के मान-सम्मान के बारे | में जागृत करते हुए जीवनदानी समर्पित कार्यकर्ताओं को प्रेरित करने की प्रेरणा की। (३) बचपन से ही हमने देखा कि गुरुदेव न तो कभी खाली विराजते न ही अपना समय पर-चर्चा में लगाते। | यही नहीं सांसारिक विषयों बाबत भी कभी नहीं पूछते। वे तो सदा आगन्तुक भक्तों को ज्ञानार्जन हेतु ही प्रेरित
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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