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________________ कृपालु करुणानिधान आचार्यश्री . श्री रतनलाल बाफना भगवान महावीर के शासन की विशुद्ध स्थानकवासी परम्परा में गौरवशाली रत्नवंश का अभूतपूर्व योगदान रहा है । इस परम्परा के ज्ञान-क्रियानिष्ठ आचार्यों ने अपनी उत्कृष्ट संयम-साधना के बल पर जन-जन के हृदय-पटल पर गहरी छाप अंकित की है। रत्नवंश के सप्तम पट्टधर सामायिक-स्वाध्याय के प्रबल प्रेरक युगपुरुष आचार्य श्री हस्ती का नाम तो बीसवीं शताब्दी के इतिहास में अमर बन गया। ७१ वर्षों के दीर्घ संयमी-जीवन में उन्होंने गांव-गांव, घर-घर और व्यक्ति-व्यक्ति को धर्म से जोड़ने का महान् कार्य किया। उनका ज्ञान बहुत गहरा था, चारित्र निर्मल था, दया और करुणा तो उनके रोम-रोम से टपकती थी। ब्रह्मचर्य का तेज उनके मुख-मण्डल पर चमकता था। जो भी उनके श्री चरणों में आता; शान्ति, आनन्द और प्रसन्नता से भर जाता था। मेरा अहोभाग्य रहा कि मैंने ऐसे परिवार में जन्म पाया जहां पीढियों से रत्नवंश का सम्बन्ध रहा। आचार्य भगवन्त की तो मुझ पर बाल्यकाल से ही असीम कृपादृष्टि रही। । आज मैं जो कुछ भी संघ-सेवा, समाज-सेवा और मानव-सेवा के कार्य कर पा रहा हूँ वह उस महापुरुष की ही प्रेरणा और आशीर्वाद का प्रतिफल है। आचार्य भगवन्त के जीवन को मुझे बहुत नजदीक से देखने का सुअवसर प्राप्त हुआ। उनका जीवन गुणों का सागर था। 'समयं गोयम मा पमायए' भगवान महावीर के इस आदेश को आचार्य भगवन्त ने जीवन में इस तरह पाला कि आप एक-एक क्षण का सदुपयोग करते थे। समय की क्या कीमत होती है, उन्होंने अच्छी तरह से जाना था। 'तवेसु वा उत्तमं बंभचेरं' नववाड सहित अखंड रूप से ब्रह्मचर्य का पालन कर वे असीम आत्म-शक्ति के | धारक बन गये थे। ब्रह्मचर्य और साधना की ताकत का मूर्त रूप उनमें देखा गया। एक संप्रदाय विशेष के आचार्य होते हुए भी पूरा जैन समाज उन्हें आदर-सम्मान की नज़र से देखता था। उनमें सांप्रदायिकता की बू बिल्कुल नहीं थी। उनके मुखारविंद से निकला हर शब्द मंत्र और हर कार्य चमत्कार था। असंभव से असंभव कार्य सहज में संभव हो जाते थे। वे मौन-साधना के प्रबल पक्षधर थे। उन्हें मौन-साधना के द्वारा वचन-सिद्धि प्राप्त थी । सीमित समय में हित, मित, प्रिय भाषा उनकी खास विशेषता थी। आचार्य श्री ने अपने जीवन में दो कार्य किये-स्वकल्याण एवं परकल्याण । नवनीत के समान कोमल हृदय | वाले आचार्यप्रवर साधना में व्रज के समान कठोर थे। आपने सुदीर्घ संत-जीवन में कभी भी किसी प्रकार की | मर्यादा भंग नहीं होने दी। आप भगवान महावीर के वफादार एवं युगमनीषी संत थे। वे अपने जीवन के कुशल | शिल्पकार थे। पूज्य गुरुदेव ने अपने जीवन को सार्थक करने की ऐसी सुन्दर योजना बनायी जिसे बिरले महापुरुष ही | पूर्ण कर पाते होंगे। संघ-उत्कर्ष, साहित्य-सर्जन, वीतराग के प्रति वफादारी, पर-दुःख कातरता, अध्यात्म में निष्ठा आदि | हर क्षेत्र में आप अद्वितीय साधक थे। सामायिक-स्वाध्याय का अभियान उनकी दूरदर्शिता का परिणाम है। मन की | बात जानने की उनमें अद्भुत शक्ति थी। आचार्यदेव तप, जप एवं संयम-साधना के शिखर पुरुष थे। लघुता में प्रभुता छिपी थी। उन्हें नाम की भूख बिल्कुल न थी। पूर्वाचार्यों व परंपरा के प्रति निष्ठावान थे। खुद कष्ट झेलकर | पर-संकटमोचक थे। __गुरुदेव की मुझ पर असीम कृपा थी। युवावय में उत्तराध्ययन सूत्र के अनुवाद आदि के लेखन का सौभाग्य
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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