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________________ नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं शीतलमुनिजी के बूंदी चातुर्मास के समय गुरुदेव की आज्ञा का उल्लंघन करने पर गुरुदेव ने फरमाया - "मुनिजी को मैंने मौन रहने की आज्ञा प्रदान की। मुनिजी को मेरी आज्ञा पालने में कष्ट हो रहा है, इसमें मुझे हिंसा का आभास होता है। अब मैं उनको आज्ञा नहीं दूंगा।” यह गुरुदेव की साधना-निष्ठ जीवन शैली का परिचायक था। सम्प्रदाय के संबंध में एक बार विचार प्रकट करते हुए गुरुदेव ने फरमाया - “सम्प्रदाय एक पारिवारिक व्यवस्था है। अपने परिवार की उन्नति व प्रगति करना अपना फर्ज होता है। पर अपनी उन्नति किसी की अवनति पर नहीं होनी चाहिये । इसी प्रकार अपनी प्रशंसा किसी की निन्दा पर एवं अपना सुख किसी के दुःख पर आश्रित नहीं होना चाहिए।” कितने उच्च विचार थे उस महापुरुष के। गुरुदेव के मन में किसी भी सम्प्रदाय के प्रति विद्वेष एवं विरोध नहीं था, अपितु गुणि-सन्तों को देखकर उनके चेहरे पर सदैव प्रमोद भाव की मुस्कान झलकती थी। गुरुदेव संकेत की भाषा में बात कहते थे। धीरे-धीरे उनके संकेतों को समझने लगा। उनके द्वारा कहे गये कथन का रहस्य समझ में आने पर मुझे प्रसन्नता का अनुभव होता था। संथारा ग्रहण करने के पूर्व निमाज में पूज्य गुरुदेव ने जो भोलावण दी, वह मुझे प्रतिपल स्मरण रहती है। उन्होंने फरमाया था - “मैंने तो इस संघ का संचालन मात्र मामूली संकेतों से बगैर कोई टंटा लगाये कर लिया। मेरे श्रावक भी इतने श्रद्धालु थे कि मुझे कभी कहने का अवसर नहीं दिया। आगे भी श्रावक अपना धर्म खुद निभायेंगे और सन्तों को श्रावकों के कामों में नहीं डालेंगे तो ही संघ की गरिमा कायम रहेगी।" उनकी यह भोलावण मेरे जीवन का अंग बन गई, उनका यह उपदेश मेरे लिये बहुत बड़ा मन्त्र बन गया। गुरुदेव के संथारे का दृश्य अद्भुत था। उनकी योजनाबद्ध साधना अनूठी थी। संथारा देखकर मुझे लगा कि मृत्यु का वरण कितनी सुन्दरता से किया जा सकता है। आचार्य भगवन्त का संथारा मृत्यु पर विजय का सफल प्रयोग था। मैं सचमुच भाग्यशाली हूँ जो गुरुदेव का आशीर्वाद पा सका। मैं उस महापुरुष का जब भी स्मरण करता हूँ तो मुझे अलौकिक शान्ति एवं आनन्द का अनुभव होता है। ऐसे श्रद्धास्पद गुरुवर्य को कोटिश: वन्दन-नमन । मार्च, १९९८ • मुणोतविला, वेस्ट कम्पाउण्ड लेन, ६३-के भूलाभाई देसाई रोड मुम्बई ४०००२६
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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