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________________ असीम उपकारक आचार्य श्री • पं. श्री जीवनमुनिजी म.मा. भौतिक शरीर से भले ही वे नहीं रहे, पर उनकी अनुपम श्रुत व चारित्र रूपी यश ध्वजा आज भी लहरा रही है। वे दिन, वह समय, वे पल जो उनकी पावन सन्निधि में बीते थे, अकस्मात् तरोताजा हो उठे। मेरे जीवन के दृढाधार रूप में वे मेरे समक्ष उपस्थित हुए थे। वीतराग का पावन पथ उन्होंने ही तो मुझे प्रदान किया था। जिन-शासन के वीर सैनिक रूप में उन्होंने ही तो मुझे सन्निधि दी थी। वह दिन आज मेरे हृदय में कमनीयता से संजोया हुआ है, जब पूज्य प्रवर ने अपने शिष्यत्व रूप में मुझे स्वीकार करके खुशियों की बहार बरसायी थी मुझ पर। अहो ! कितनी दिव्यता थी, उनके मुखमण्डल पर। मैं तो प्रथम संदर्शन और संमिलन में ही उनके यशस्वी मुक्तिपथ पर गतिमान चरणों में सर्वतोभावेन समर्पित हो गया था। क्या नहीं मिला उनसे, सब कुछ पाया। प्यार, दुलार, ममत्व, अपनापन सब ही तो दिया और सबसे महत्त्वपूर्ण जो उन्होंने दिया, वह था जीवन का कल्याण और आनंदकारी मुक्ति का पथ । श्रुत और चारित्र की अनमोल निधि उन्होंने अति प्रेमलता से, भाव-विभोर होकर दी और मैंने ली । कैसे भूल सकता हूँ उनका वह दिव्यदान । वह तो मेरे जीवन में, हृदय में प्राणों में आज भी झंकृत हो रहा है __पूज्यप्रवर का ज्ञानकोष आगम-ग्रन्थों के सम्पादन, जैन-धर्म का मौलिक इतिहास, प्रवचन-साहित्य आदि-आदि साहित्यिक गुलदस्तों से सजा हुआ है , जो उनकी गहन, गम्भीर दार्शनिकता, सूक्ष्म दृष्टिकोणता और तत्त्वज्ञान की | गहरी पकड़ को प्रकाशित करता है। ज्ञान का फल लघुता एवं विनय बताया गया है। पूज्यप्रवर आचार्य पद की गरिमा-महिमा और महत्ता से संयुक्त होकर भी विनय की साकार प्रतिमूर्ति थे। “आचार्य प्रवर संघ नायक होकर भी विनय, विनम्रता की दिव्य मूर्ति थे। ज्ञान, ध्यान, स्वाध्याय-तप-संयम की एक भव्य विभूति थे। बीसवीं सदी के इस युग पुरुष की महिमा अपरम्पार है। 'गुरु' गुरुपद धारी होकर भी, सचमुच लघुता की प्रतिमूर्ति थे।" पूज्य प्रवर एक परम्परा विशेष से आबद्ध होकर भी निराबद्ध थे। जहां-जहां भी, जिन-जिन क्षेत्रों में पूज्य श्री का परिभ्रमण हुआ वहां-वहां उन्होंने विषमता की , राग-द्वेष की जलती आग को बुझाने का प्रयास किया और समता के अपनत्व के सुनहरे सुरभित फूल ही बिछाये। इसके साथ ही अपने समस्त उपासकों को भी समताभाव का अमृत | पिलाया। सामायिक-स्वाध्याय की प्रेरणा के पीछे उनका यही आत्मीय भाव रहा था कि जिनशासन के उपासक वर्ग में समताभाव का संचार होना चाहिये। इसी शुभत्वभावेन पूज्य प्रवर श्री ने सामायिक-स्वाध्याय का प्रचार गांव-गांव और घर-घर किया। __ कितनी गहन और महान् थी उनकी साधना। हो भी क्यों नहीं ? जीवन के शैशव से ही वे जिन शासन के | उपासक हो गये थे। बीस वर्ष की अत्यल्प, लघु उम्र में वे जिन-शासन के नायकत्व के उच्च धवल शिखर पर आरूढ़ हो गये थे। कितने ही अनुभवों से गुजर कर उनके दिव्य यशस्वी जीवन का निर्माण हुआ था। यौवन की
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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