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________________ तृतीय खण्ड : व्यक्तित्व खण्ड ५०९ क्या रात्रि को सोते समय उसका स्मरण आपको होता है।” मैंने कहा- “हाँ भगवन् ! मुझे दिन की पठित बातें रात को बहुत याद आती हैं।” गुरुदेव ने फरमाया- “ उसे सुबह उठते ही, नित्यकर्म से निवृत्त होकर लिख लिया करना ।" मेरी गुरुणी जी श्री | मदन कंवर जी म.सा. ने भी मुझे पूरा सहयोग दिया और मैंने गुरु आज्ञा का अक्षरश: पालन किया । सर्दियों के दिनों में बिछौने के लिए लाई हुयी कतरन में से कागज की लीरियाँ निकाल-निकाल कर मैंने लिखना प्रारम्भ किया। आज मैं जो कुछ हूँ, चतुर्विध संघ के समक्ष हूँ। यह सब मेरी नहीं, उस घड़ने वाले महापुरुष की अनूठी कृपा-दृष्टि का फल है, जो आप देख रहे हैं। आपने तो बचपन की घड़ियों में ही दृढ संकल्प कर लिया था कि मुझे तो कर्म- बंधनों से मुक्त होना है। साथ ही जो प्राणी गलत रूढ़ियों में बंधे हुए हैं, उनको भी व्यसन - फैशन के बन्धनों से मुक्त कराना है । बंधन - मुक्ति के लिए उन्होंने शास्त्रों का स्वयं गहन अध्ययन किया और जो शास्त्र पढ़ने से भयभीत थे और पढ़ने से कतराते थे, जिनकी ऐसी धारणाएँ बन चुकी थीं कि 'पढ़े सूत्र तो मेरे पुत्र' ऐसे लोगों को भयमुक्त कर सैकड़ों की संख्या में स्वाध्यायी बनाये । - वे स्वाध्यायी दूर-दूर देश और विदेशों में जाकर पर्युषण में जिन धर्म का प्रचार-प्रसार कर रहे हैं। , आज के इस भौतिक युग में जहाँ चारों तरफ हिंसा, व्यसन एवं स्वार्थ- वृत्ति का जहां देखो दौर चल रहा है, वहाँ आचार्य भगवन्त ने सत्य, अहिंसा, शाकाहार, व्यसन मुक्ति और प्रामाणिकता का उपदेश देकर आदर्श समाज की स्थापना करने का प्रयत्न किया। कल तक जिन्हें देख-देख कर आप - हम खुशी से झूम उठते थे, वे संघ के छत्रपति जैन-जगत के प्रखर सूर्य रूपा - केवल के अनुपम लाल और मां भारती के बाल, आज हमारे बीच में भौतिक पिंड से विद्यमान नहीं हैं, किन्तु उनके उपदेशों की सर्चलाइट आज भी हमें प्रकाशित कर रही है। कवि के शब्दों में - I धन्य जीवन है तुम्हारा, दीप बनकर तुम जले हो विश्व का तम-तोम हरने, ज्यों शमा की तुम ढले हो । अम्बर का सितारा कहूँ, या धरती का रत्न प्यारा कहूँ । त्याग का नजारा कहूँ, या डूबतों का सहारा कहूँ । धीर-वीर निर्भीक सत्य के, अनुपम अटल बिहारी । तुम मर कर भी अमर हो गए, जय हो हस्ती तुम्हारी । " देदीप्यमान रत्न, सन्तरूपी मणिमाला की वे मानव मात्र के मसीहा, दया के देवता, भारतीय संस्कृति के दिव्यमणि, साधु समाज की ढाल, बात के धनी, सच्चे योगी और शासन सूर्य 1 युगपुरुष के रूप में आचार्य श्री हस्ती का जीवन सदैव स्मरणीय रहेगा। वे मेरे जीवन के निर्माता, आगम के ज्ञाता, जन जन के त्राता थे। उनको - “ श्रद्धा पीड़ा भरे नयन, मन करते हैं, अन्तिमं नमन । " अन्त में- “मात कहूँ कि तात कहूँ, सखा कहूँ जिनराज, जे कहूँ ते, ओछ्यो बध्यो, मैं मान्यो गुरुराज 1"
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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