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नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं
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| उतरा । भाषा समिति का पालन करते हुए एक-एक शब्द तोलकर बोलते थे । निष्प्रयोजन बोलना, अनावश्यक बोलना आपके स्वभाव में था ही नहीं । भगवन्त एषणा समिति के निर्दोष पालन का भी पूरा ध्यान रखते थे। दवा भी कभी | दोष वाली आ जाए तो प्रायश्चित्त देकर उसका शुद्धीकरण करवाते थे । अन्तिम समय में गुरुदेव ने आलोचना - | प्रतिक्रमण का कितना सुन्दर रूप रखा, आपने निमाज में देखा है, सुना है ।
पानी में रोटी चूरकर खाने का जिन्हें अभ्यास हो, उनके लिए माण्डले के दोष की सम्भावना ही कहाँ ? स्वाद क्या होता है, इसे भगवन्त शायद जानते ही नहीं । या यूं कहें आत्मरस में निमग्न साधक को बाह्य रस आ ही नहीं सकता । वस्त्र - पात्र लेते - रखते समय आप पूरी यतना रखते थे। आज साधक भूल जाते हैं कि शरीर भी एक उपकरण है । वे दीवार | का सहारा लेते हैं, परन्तु भगवन्त ने कभी टेका नहीं लिया। रात में विश्राम के पूर्व शरीर को पूंजकर सोते ।
बूंदी में सन्तों द्वारा आग्रह किया जा रहा था, किन्तु भगवन्त की इतनी सजगता कि देखो, डॉक्टर कच्चे पानी | से हाथ न धो ले। जयपुर से निवाई के मार्ग में कौथून ग्राम में रात भर पानी टपक रहा था। उस छोटे से स्थान से | सामने कमरे में जा सकते थे, पर भगवन्त का चिन्तन कि पानी की बूंद मेरे जीव के समान है । ऐसा साधक कभी भी | शरीर की सुविधा को प्रधानता नहीं दे सकता । हरिप्रसादजी एवं रामदयाल जी वहां मौजूद थे । ७८ साल की उम्र में सारी रात बैठे निकाल दी गई, यह है चौथी समिति ।
जीव अजीव की ओर देखता है तो पाप होता है, आस्रव होता है, बंध होता है। जीव मुक्ति की ओर देखता है तब संवर होता है, निर्जरा होती है और मुक्ति की ओर चरण बढ़ते हैं। जिनका लक्ष्य आत्मा की शुद्ध दशा प्राप्त | करना है वे साधक शरीर को क्लेश पहुँचाते हुए भी ग्लानि का अनुभव नहीं करते ।
पांचवी समिति है परिष्ठापना । तीन किलोमीटर जाना है, सुबह-शाम जाना है, पर जाना है तो जाना ही है । क्यों तो जीव-जन्तु रहित भूमि पर शरीर से निकलने वाले पदार्थ को परठना है । इससे आपने प्रेरणा ली कि शरीर को मल बर्दास्त नहीं तो आत्मा को कैसे मलिन होने दे।
संघनायक को अनुशासन के लिए कठोर भी बनना पड़ता है, पर उनके भीतर हित की भावना रहती है । वह | शिष्य को डांटेगा तो भी हित की भावना से, यही मनोगुप्ति है। मन को ऐसा साधने पर देवता वन्दन करे, इसमें कोई | आश्चर्य नहीं है। भगवन्त की साधना के कई-कई पहलू हैं। वे काया को संकुचित करके बैठ जाते । जिस करवट सो गये, करवट बदलते ही उठ जाते। यह सब चारित्र की निर्मल आराधना से होता है । निमाज में संथारे के समय कोई प्रेरणा नहीं, किन्तु जैनेतर लोगों में अहिंसा की भावना प्रस्फुटित होना और जीवहिंसा का त्याग करना, आपके चारित्राचार का ही तो प्रभाव था । आपने निःसंग रहकर श्रमणसंघ को गुरुकुल बनाया। मोक्ष-मार्ग में चलकर जो समीप आया उसे शरण दी । अनासक्त रहकर आचरण में तत्परता रखी ।
जोधपुर में खरतरगच्छ के सन्त श्री मणिप्रभसागर जी कहने लगे – “हम विद्वत्ता के लिए नहीं, सरलता के लिए इनके पास आते हैं ।” पांच समिति - तीन गुप्ति का निर्मल पालन करने वाला बारहवें गुणस्थान तक पहुँच सकता | है और आचरण के अभाव में पूर्व की तीसरी आचार वस्तु का ज्ञान होने पर भी गुणस्थान मिथ्यात्व ही रह जाता
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हमारा हर चरण मुक्ति की ओर बढ़े। भगवन्त ने अन्त समय तक हमसे कहा- "मर्यादा का पालन करना, आचार्य श्री रतनचन्द्र जी महाराज के इक्कीस बोल की मर्यादा सुरक्षित रखना और मैं खाली हाथ न चला जाऊँ इसका ध्यान रखना।" भगवन्त को संथारे रूपी कलश की अत्यन्त उत्कण्ठा थी । अग्लान भाव से संघ की सेवा करने वाला आचार्य जघन्य इसी भव में, मध्यम दूसरे भव में और उत्कृष्ट तीन भव में निश्चित मोक्ष में जाता है।