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________________ (तृतीय खण्ड : व्यक्तित्व खण्ड ५०५ किया गया अध्ययन टिकता है इग्नोर (उपेक्षापूर्वक) किया गया अध्ययन टिक नहीं पाता। वीरपुत्र श्री घेवरचन्द जी म.सा. सन् १९८९ का चौमासा पूर्ण होने पर विहार करके आचार्य भगवन्त की स्वास्थ्य समाधि की पृच्छा करने कोसाणा पधारे। उन्होंने प्रसंगवश फरमाया-"भीनासर चातुर्मास में प्रतिदिन व्याख्यान सुनने जाता था तो भावविभोर होकर व्याख्यान सनता था।” आचार्य श्री पद्मसागर जी म.सा. भोपालगढ-जोधपुर में प्रसंग सुनाने लगे तो नागौर में आचार्यप्रवर के चरणों में किये गये अध्ययन की स्मृति करके गद्गद् हो गये। अन्य-अन्य परम्परा के सन्त ज्ञान की प्यास शान्त करने के लिए भगवन्त के चरणों में प्रस्तुत रहते थे। ज्ञान के साथ अभिमान का न होना आचार्यप्रवर की मुख्य विशेषता थी। वह प्रसंग कितना प्रेरक है जब चातुर्मास हेतु जयपुर भेजने से पहले खवासपुरा में गुरुदेव ने फरमाया-“व्याख्यान के बाद श्रोताओं द्वारा की जाने | वाली प्रशंसा में मुग्ध मत बन जाना। सूंठ के गाँठे से कोई पंसारी नहीं बन जाता।” साहित्य का विशाल ज्ञान है, | जीवन में आगम एकमेक हो गया है, प्रायश्चित्त ग्रन्थों के विशारद हैं, जैन इतिहास के प्राचीन स्रोतों की खोज कर समाज के समक्ष उपस्थित किया है। वे महापुरुष कहते हैं कि सूंठ के गांठे से कोई पंसारी नहीं बन जाता। बस यही लघुता प्रभुता दिलाने वाली है। आपने देश के कोने-कोने में स्वाध्याय का अलख जगाया। जैन सिद्धान्त शिक्षण संस्थान और स्वाध्याय विद्यापीठ जैसी संस्थाओं की रूपरेखा समाज के समक्ष प्रस्तुत की। भगवन्त ने एक-एक व्यक्ति को श्रुतज्ञान से जोड़कर आत्म-साधना में बढ़ने की प्रेरणा की। ज्ञानाचार के शुद्ध आराधक थे पूज्य गुरुदेव।। ज्ञान का निर्मल पालन करने वाले साधक का दूसरा आचार दर्शनाचार है। सम्यक्दर्शन की आधारशिला है| सब प्राणियों को अपने समान देखना-समझना - सव्वभूयप्पभूयस्स सम्मं भूयाइं पासओ । __ सम्यक्त्व की भूमिका में पर की निन्दा नहीं हो सकती। उसमें सबके प्रति अपनापन होता है। पूज्य गुरुदेव ने भजन में कहा भी है – “निन्दा विकथा नहीं पर घर की, जय जय हो रत्न मुनीश्वर की।” मैंने बचपन से सुना था कि यदि आपके द्वार की सीढ़ियाँ मैली हैं तो पड़ोसी की छत के कूड़े की आलोचना मत कीजिए। आचार्य भगवन्त का जीवन प्रेरणा प्रदान करता है कि हम पराये घर की चर्चा को प्रोत्साहन न दें। आचार्य श्री का सूत्र था गुणदर्शन, गुणवर्णन और गुणग्रहण । गुणग्रहण अपेक्षा से कह रहा हूँ, वरना गुण का प्रकटीकरण होता है । भगवन्त के रोम-रोम में वीतराग वाणी रमी हुई थी। दर्शनाचार के आठ अंगों का उन्होंने सम्यक् पालन किया। गुरुदेव के चरणों में लोगों का मस्तक श्रद्धा से झुक जाता था। मेरी दीक्षा के पश्चात् ब्यावर में पुलिस का कोई उच्चाधिकारी एस. पी. या डी. एस. पी. रात्रि में गुरुदेव के दर्शनों हेतु आया। मैं भी वहीं चरणों में बैठा था। उस अधिकारी ने आचार्यदेव के चरणों में वन्दन किया और बहुत ही गूढ ध्यान सम्बन्धी प्रश्न पूछे । गुरुदेव ने उनका ऐसा समाधान किया कि वह अधिकारी गद्गद् हो गया। वह जैन नहीं था, किन्तु अपने प्रश्नों का समाधान पाकर उसने कहा कि ऐसा सुन्दर समाधान तो स्वयं साधना पथ पर चलने वाले साधक के पास ही हो सकता है। चारित्राचार में पांच समिति एवं तीन गुप्ति की आराधना आती है। किसी जीव की हिंसा न हो, इसके लिए आठ वर्ष की उम्र से ही रात्रि भोजन का त्याग किया। भगवन्त के अन्त समय तक चारित्र में दृढता बनी रही। उत्तराध्ययन सूत्र के २४ वें अध्ययन में उल्लेख है - 'तम्मुत्ती तप्पुरक्कारे' अर्थात् गमन क्रिया में तन्मय होकर एवं उसी को सम्मुख रखकर उपयोग पूर्वक चले। बातचीत न करे। उसी में उपयोग रहे । चलते समय साधक चार हाथ आगे की भूमि देखता हुआ चलता है। आचार्य भगवन्त का जीवन ईर्या समिति के सम्यक् पालन पर सदैव खरा
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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