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________________ ज्योतिर्धर आचार्य • उपाचार्य श्री देवन्द्र मुनि जी म.सा.* सन् १९५२ में जब सादड़ी में सन्त-सम्मेलन का आयोजन हुआ, उस समय आप श्री का मंगलमय पदार्पण सम्मेलन में हुआ। सादड़ी के पवित्र प्रांगण में सर्वप्रथम मुझे आपके दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त हुआ। प्रथम दर्शन में ही मैं उनसे अत्यधिक प्रभावित हुआ। उन्होंने अपनत्व की भाषा में जो मधुर शिक्षाएँ प्रदान की, वे जीवन की अनमोल थाती हैं। उनकी अपनत्व की भावना ने ही उनके प्रति अनन्त आस्था पैदा की। ___ सन् १९५३ में पुन: सोजत मन्त्री मण्डल की बैठक में आपके दर्शनों का सौभाग्य मिला। जब भी मैं आपके कक्ष में दर्शनार्थ पहुँचता तब स्नेह-सुधा से स्निग्ध शब्दों में आप मुझे हित शिक्षाएँ देते कि तुम्हें राजस्थान की गरिमा को सदा अक्षुण्ण रखना है। आपने मुझे यह प्रेरणा दी कि तुम्हारे अन्तर्मानस में साहित्य के प्रति सहज रुचि है, किन्तु यह उपयोग रखना है कि जो लेख लिखें जायें, वे आगम व स्थानकवासी मान्यता के विरुद्ध न हों। महाराज श्री की प्रेरणा से मैंने यह कार्य सहर्ष किया भी। सन् १९५७ में परमादरणीय उपाचार्य श्री गणेशीलालजी म. तथा आप श्री के पास लगभग एक महीने तक रहने का अवसर मिला। उस समय मैंने बहुत ही सन्निकटता से आपको देखा। जप-साधना के प्रति आपकी निष्ठा को देखकर मेरा हृदय आनन्द-विभोर हो उठा। सन् १९६० में विजयनगर में आठ-दस दिन साथ में रहने का अवसर मिला। 'अखण्ड रहे यह संघ हमारा' यह नारा बुलन्द किया। इस लेख में 'श्रमण संघ अखण्ड रहे' इस सम्बन्ध में जो विचार व्यक्त हुए हैं, वे इतिहास की एक अपूर्व धरोहर हैं। उन विचारों को पढ़ने से लगता है कि श्रमण संघ के प्रति कितने निर्मल विचार आपके रहे हैं। सन् १९९० का सादड़ी का यशस्वी वर्षावास सम्पन्न कर हम लोग पाली पहुँचे । मैं मध्याह्न में आपकी सेवा में पहुँचा। आपने प्रसन्न मुद्रा में वार्तालाप किया और कहा कि मेरा शरीर अब साथ नहीं दे रहा है। हमने अपने जीवन में स्थानकवासी समाज के उत्कर्ष हेतु सतत प्रयास किया है। आपको भी यही प्रयास करना है। विचारों की उत्क्रान्ति के साथ आचार की उपेक्षा न हो, यह सतत स्मरण रहे। इतिहास का जो कार्य अपूर्ण रह गया है उसे भी पूरा करने का लक्ष्य रहे। पाली से आपका विहार सोजत होकर निमाज की ओर हुआ। स्वास्थ्य शिथिल होने पर क्षमापना पत्र भी प्राप्त हुआ जो आपके निर्मल हृदय का स्पष्ट द्योतक था। संथारा जीवन की एक अपूर्व कला है। आध्यात्मिक साधना का सर्वोच्च शिखर है । यह व्रतराज है। जीवन की अन्तिम वेला में की जाने वाली उत्कृष्ट साधना है। यदि कोई साधक जीवन भर उत्कृष्ट तप की आराधना करतां रहे, पर अन्त समय में यदि वह राग-द्वेष के दल-दल में फंस जाता है तो उसकी साधना निष्फल हो जाती है। संथारा जीवन-मन्दिर का सुन्दर कलश है। संथारा आत्म-हत्या नहीं है। आत्महत्या में कषाय की प्रमुखता होती है। अन्तर्मानस में कई इच्छाएँ होती हैं पर सन्थारे में तो इच्छाएँ नहीं होती। हँसते हुए मृत्यु का वरण किया जाता है। जिन महान् आत्माओं ने भेदविज्ञान के द्वारा यह समझ लिया कि देह और आत्मा पृथक् है, वे ही इस साधना को * बाद में आचार्य पद से सुशोभित
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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