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________________ (४९४ नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं हस्ती तो स्वयं ही ज्ञान एवं क्रिया के संगम हैं।" इतना सब होते हुए भी गुरुदेव अत्यन्त सरल एवं विनम्रता की मूर्ति थे। आपके उपदेशों का श्रोताओं पर | यथेष्ट प्रभाव पड़ता था। कारण स्पष्ट था । वे पहले करते थे, जीवन में उतारते थे और फिर कहते थे। गुरुदेव ने अपने संयम-काल में विषम से विषम परिस्थितियों को भी धैर्यपूर्वक सहा। कितने ही संत विदा हो गये। कितने ही संतों की समाधि में, उनके संथारे में आपने साज दिया। जिस समय मैंने दीक्षा ली थी, उस समय तक का सम्प्रदाय में कोई भी संत आज विद्यमान नहीं है। बाबाजी श्री सुजानमल जी म.सा, स्वामीजी श्री अमरचन्दजी म.सा. आदि अनेक संत गए, पर उस वक्त भी गुरुदेव विचलित नहीं हुए। बड़े आत्म-विश्वास से संयम-जगत् में रमण करते रहे। उनके जीवन का एक-एक गुण उनके भक्तों के जीवन में मूर्तिमंत हो, तभी उनका स्मरण सफल होगा। ज्ञान और क्रिया में समन्वय जिस महापुरुष ने किया था वह महापुरुष संसार से विदा हो गया, परन्तु अन्तिम समय में भी समाधिमरण के साथ एक कीर्तिमान स्थापित किया। जन-जन को बता दिया कि मरण हो तो ऐसा हो महोत्सव की तरह । वैशाख शुक्ला अष्टमी के दिन रवि पुष्य नक्षत्र में नश्वर देह का परित्याग कर इस संसार से विदा हो गये, परन्तु बहुत बड़ी प्रेरणा दे गये कि आप लोग भी इस तरह का जीवन जीयें जिससे अन्तिम समय शान्तिपूर्वक पण्डित मरण के साथ यहाँ से विदा हो सकें। लंबे समय का वह अभ्यास ही उनको समाधिमरण की तरफ प्रेरित कर गया। सामायिक और स्वाध्याय का संदेश देने वाले वे स्वयं ही सामायिकमय हो गये, उनके भीतर सामायिक उतर गयी। एक तो वे हैं जो सामायिक करते हैं तथा एक वे हैं जिनके जीवन में सामायिक होती है। करने में और होने में बड़ा अन्तर है। करना तो क्रिया है, होना आत्म-साक्षात्कार है। अगर आत्मा के अन्दर सामायिक हो गयी तो फिर करना क्या बचा ? उन्होंने इस तरह से केवल सामायिक ही नहीं की, अपने जीवन के अन्दर सामायिक को उतार कर लोगों की धारणा को बदल दिया। लम्बे समय के बाद में किसी आचार्य को ऐसा समाधिमरण हुआ तो लोग कहने लगे कि आचार्य को समाधि मरण होता ही नहीं है, क्योंकि वे झंझटों में फंसे रहते हैं, चतुर्विध संघ की व्यवस्था के अन्दर इतने उलझे रहते हैं कि उनके मन में चिन्ता बनी रहती है, जिसके कारण वे अन्तिम समय समाधि-मरण को प्राप्त नहीं कर पाते हैं। किन्तु व्यक्ति क्या नहीं कर सकता है? चाहना के अनुसार अगर आचरण है, जीवन व्यवहार है, आत्मा में इस तरह की सच्ची लगन है तो मनुष्य सब कर सकता है। अपने ७१ वर्ष के संयम काल में आचार्य भगवन्त ने आचार्य, उपाध्याय तथा संत पदों का क्रियापूर्वक निर्वहन किया। ६१ वर्ष आचार्य रहते हुये भी अपने को सदा संघ-सेवक शोभा शिष्य हस्ती ही माना। गुरुदेव द्वारा रचित स्तवन-भजन आत्मा को ऊपर उठाने वाले हैं। जब आचार्य भगवन्त ने निमाज में संथारा ग्रहण कर लिया था, तब उन्हें “मेरे अन्तर भया प्रकाश, नहीं मुझे किसी की आस” तथा “मैं हूँ उस नगरी का भूप जहाँ नहीं होती छाया धूप”-जैसे भजन सुनाये गये। सुनाते-सुनाते ही संत भाव विभोर हो उठते थे। वे केवल उपदेशक ही नहीं, उपदेशों को आत्मसात् करने वाले थे। हम भी कभी-कभी सोचते हैं कि हमने | कभी किसी केवली को नहीं देखा। गणधरों को नहीं देखा,पर हमे संतोष है कि हमने आचार्य भगवन्त को देखा, हम | भाग्यशाली हैं कि हमें उनका सान्निध्य मिला।
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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