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नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं लिए जल्दी-जल्दी सामायिक करके समाप्त कर देना, चित्त में विषम भाव को स्थान देना आदि अनुचित हैं। • श्वेताम्बर परम्परा में सामायिक के पूर्व वेश परिवर्तन आदि की बहुत सी बाह्य क्रियाएँ अपेक्षित मानी जाती हैं। दिगम्बर परम्परा में बाह्य क्रियाएँ अति न्यून हैं । श्वेताम्बर परम्परा का मन्तव्य है कि भरत, चिलाती पुत्र आदि को सामायिक बिना पाठ और बाह्य क्रिया के हुई। वे अपवाद रूप हैं। अन्तर की विशेष योग्यता वाले बिना बाह्य ।। विधि के भी सामायिक कर सकते हैं, किन्तु साधारण साधक के लिये बाह्य विधि भी आवश्यक है। आज विविध परम्परा के लोग जब एक जगह पर धर्मक्रिया करने बैठते हैं, तब भिन्न-भिन्न प्रकार की नीति-रीति को देखकर टकरा जाते हैं, वाद-विवाद में पड़ जाते हैं, जबकि धार्मिक-मंच सहिष्णुता का पाठ पढ़ाने का अग्रिम स्थान है। लोकसभा में विभिन्न प्रकार की वेशभूषा, साज-सज्जा, बोलचाल और नीतिरीति के व्यक्ति एक साथ बैठ सकते हैं, तो फिर क्या लम्बी मुंहपत्ती और चौड़ी मुंहपत्ती वाले प्रेमपूर्वक एक साथ नहीं बैठ सकते ? वीतराग के शासन काल में किसी भी सत्यप्रेमी को जो खुले मुँह बोलने में दोष मानता हो, भले वह मुँह के हाथ लगाकर, कपड़ा लगाकर या मुँहपत्ती बांध कर यतना से बोलता हो तो एक साथ बैठ सकता है। जैसे-मुँहपत्ती बांधने वाले असावधानी से बचना चाहते हैं वैसे ही उसे हाथ में रखने वाले भी खुले मुँह नहीं बोलने का ध्यान रखें तो विरोध ही क्या है ? विरोध असहिष्णुता से , एक दूसरे के दोष बताने में है। मुँहपत्ती बांधने वाले को धुंक में जीवोत्पत्ति बताकर छुड़ाना और नहीं बांधने वाले को उसकी परम्परा के विरुद्ध बलात् बंधाना विरोध का कारण है । पसीने से गीले वस्त्र की तरह गीली मुँहपत्ती जब तक मुँह के आगे रहती है, भाप की गर्मी के कारण तब तक जीवोत्पति की संभावना नहीं रहती। इस प्रकार दोनों के मन में जीव रक्षा का भाव है। हिंसा, असत्य, अदत्त,कुशील, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान, पैशुन्य आदि पाप कर्म का परित्याग
भी दोनों का एक ही है। • सावध योग या पापकारी क्रिया चाहे मन की हो, चाहे वचन की हो, जिसमें पापकारी क्रिया है, वह दण्ड का रूप
है। सामायिक में सबसे पहले सावध योग रूप दण्ड का त्याग होता है। शिष्य गुरु के चरणों में निवेदन करता है कि भगवन् ! मैं सावद्य योगों का त्याग करता हूँ। जिसमें पाप है, झूठ है, क्रोध है, मान है, माया है, राग है,
द्वेष है, जो भी पापकारी प्रवृत्तियाँ हैं, दण्ड के लायक हैं, उनको मैं छोड़ता हूँ। • सामायिक को पैसों से नहीं खरीदा जा सकता। श्रेणिक राजा अपने नारकीय द्वार बन्द करने हेतु पूणिया श्रावक से सामायिक खरीदने चला गया, किन्तु क्या सामायिक का मूल्य आंका जा सकता है? श्रेणिक राजा को अपने वैभव पर गर्व था। वह पूणिया श्रावक से सामायिक का मनचाहा मूल्य मांगने हेतु कहने लगा। पूणिया श्रावक चुप रहा। फिर उसने श्रेणिक से कहा- सामायिक का मूल्य मुझे ज्ञात नहीं है । आप भगवान् महावीर से इसका मूल्य ज्ञात कर लीजिए। महावीर ने बताया कि करोड़ों सुमेरु पर्वत भी यदि दिये जाएँ तो वे सामायिक की दलाली भी नहीं कर सकते। वस्तुत: सामायिक का धन वैभव से कोई सम्बन्ध नहीं है। धन-वैभव का सम्बन्ध शारीरिक सुख-सुविधाओं से हो सकता है, किन्तु आत्मा से नहीं। धन-वैभव से समता आ ही नहीं सकती। समता आन्तरिक विषमता को दूर
करने पर आती है तथा वही आत्मा का वैभव है। • एक भाई सादे सफेद कपड़े के आसन पर सादे वस्त्र पहिने सामायिक में बैठा है और दूसरा भाई गलीचे का
आसन लेकर बैठा है। गलीचे वाले को सामायिक का लाभ अधिक मिलेगा या उस सीधे -सादे वस्त्रों में सादे |