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द्वितीय खण्ड : दर्शन खण्ड
४७१ पलंग के पास या रसोई घर में बैठकर सामायिक करते हैं तो समता कैसे आयेगी? विषमता के क्षेत्र में रहकर
समता की साधना नहीं की जा सकती। • सामायिक साधक के लिए काल का भी अपना विशेष महत्त्व है। जिस प्रकार भोजन करने का, दवा लेने का,
शरीर की आवश्यक क्रियाओं से निवृत्त होने का निश्चित समय निर्धारित होने का लाभ है, उसी प्रकार नियमित रूप से नियत समय पर की जाने वाली सामायिक का अपना विशेष लाभ है। सामायिक समभाव की साधना है । सामायिक साधक को प्रतिदिन यह सोचते रहना चाहिये कि उसके विषम | भाव कितने कम हुए हैं, और समता कितनी आयी है ? जिस प्रकार बुखार आने पर यदि दो तीन दिनों तक दवाई लेते रहने पर वह नहीं उतरता है तो दवा बदल दी जाती है। इसी प्रकार आपको सामायिक करते-करते वर्षों बीत गये और मन की वृत्तियों में कोई बदलाव नहीं आया तो इस सम्बन्ध में सोचना चाहिए और प्रयत्न करना चाहिये कि क्रोध कैसे कम हो, झूठ कैसे न बोला जाय, घृणा कैसे दूर हो? जिस प्रकार दवा रोग मिटाने के लिए ली जाती है उसी प्रकार सामायिक समता लाने के लिये की जानी चाहिये। ऐसा न हो कि दवा तो रोग मिटाने के लि
मटान क ालय खाओं और सामायिक केवल रूढ़ि पालन के लिए करो। • जिस व्यापार से समभाव का विघात हो, वह सब व्यापार अप्रशस्त कहलाता है। साथ ही उस समय “मैं
सामायिक व्रत की आराधना कर रहा हूँ" यह बात भूलना नहीं चाहिये। यह सामायिक का भूषण है क्योंकि जिसे निरन्तर यह ध्यान रहेगा कि मैं इस समय सामायिक में हूँ, वह इस व्रत के विपरीत कोई प्रवृत्ति नहीं करेगा। इसके विपरीत सामायिक का भान न रहना दूषण है। सामायिक का पहला अतिचार मन: दुष्पणिधान है, जिसका तात्पर्य है मन का अशुभ व्यापार। सामायिक के समय में साधक को ऐसे विचार नहीं होने चाहिये जो सदोष या पापयुक्त हों। सामायिक में मन आत्माभिमुख होकर एकाग्र बन जाना चाहिये। एकाग्रता को खण्डित करने वाले विचारों का मन में प्रवेश होना साधक की दुर्बलता है। सामायिक का दूसरा दोष है वचन का दुष्पणिधान अर्थात् वचन का अप्रशस्त व्यापार । सामायिक के समय आत्म-चिन्तन, भगवत् -मरण या स्वात्मरमण की ही प्रधानता होती है। अतएव सर्वोत्तम यही होगा कि मौन भाव से सामायिक का आराधन किया जाय। यदि आवश्यकता हो और बोलने का अवसर आए तो भी संसार-व्यवहार सम्बन्धी बातें नही करना चाहिये। हाट हवेली या बाजार-सम्बन्धी बातें न करें, काम-कथा और युद्ध-कथा से सर्वथा बचते रहें। कुटुम्ब परिवार के हानि-लाभ की बातें करना भी सामायिक को दूषित करना है। सामायिक का तीसरा दूषण शरीर का दुष्पणिधान है। शरीर के अंग-प्रत्यंग की चेष्टा सामायिक में बाधक न हो, इसके लिये यह आवश्यक है कि इन्द्रियों एवं शरीर द्वारा अयतना का व्यवहार न हो। सामायिक की निर्दोष साधना के लिए यह अपेक्षित है। इधर-उधर घूमना, बिना देखे चलना, पैरों को धमधमाते हुए चलना, रात्रि में बिना पूंजे चलना, बिना देखे हाथ पैर फैलाना आदि काय दुष्पणिधान के अन्तर्गत आते हैं। मन, वचन और काय
का दुष्पणिधान होने पर सामायिक का वास्तविक आनन्द प्राप्त नहीं होता। • सामायिक काल में सामायिक की स्मृति न रहना भी सामायिक का दोष है। • व्यवस्थित रूप से अर्थात् आगमोक्त पद्धति से सामायिक व्रत का अनुष्ठान न करने से दोष का भागी होना
पड़ता है। यह पाँचवा दूषण है। सामायिक अंगीकार कर प्रमाद में समय व्यतीत कर देना, नियम के निर्वाह के