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(द्वितीय खण्ड : दर्शन खण्ड
४६७ • सामायिक का अभ्यास वह अभ्यास है, जिससे आदमी अपने आपको चारित्र-मार्ग में ऊँचा उठा सकता है। • पाँच प्रकार के चारित्र में पहला सामायिक चारित्र है। सामायिक में सम्पूर्ण पापों का त्याग होता है। स्वाध्याय
कहने से श्रुत अर्थात् ज्ञान आ गया और सामायिक कहने से क्रिया आ गई। स्वाध्याय और सामायिक में मुक्ति का मार्ग पूरा का पूरा आ गया। शास्त्रों में 'ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः' इन दो मार्गों से तथा 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' इन तीन मार्गों से और तप का पृथक् उल्लेख कर ‘सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र-तप' इन चार मार्गों से भी मुक्ति बताई है, वह सब इन दो में -स्वाध्याय और सामायिक में आ जाता है। दुःख का वास्तविक कारण आर्थिक विषमता नहीं, मानसिक विषमता है। यह मानसिक विषमता सामायिक की साधना द्वारा समताभाव लाकर मिटाई जा सकती है। साधना की अपेक्षा से सामायिक सम्यक्त्व, श्रुत, आगार और अनगार के भेद से चार प्रकार की होकर भी मूल में एक ही है। गृहस्थ विषय-कषाय के प्रगाढ पंक में रहकर भी क्षणिक समभाव की उपलब्धि कर सके, राग-रोष के जोर को घटा सके, इसलिए आचार्यों ने उसे सामायिक की शिक्षा दी है। समय, उपकरण और विधि की अपेक्षा परम्परा भेद होने पर भी सामायिक के मूल रूप में कोई अंतर नहीं है। मौलिक रूप से आर्तध्यान, रौद्रध्यान तथा सावध कार्य का त्याग कर मुहूर्त भर समता में रहना सामायिक है। कहा भी है
'त्यक्तार्तरौद्रध्यानस्य. त्यक्तसावद्यकर्मणः ।
महर्त समतायास्तं विदः सामायिकं व्रतम् ।। • सामायिक में कोई यह नहीं समझले कि इसमें कोरा अकर्मण्य होकर बैठना है। सामायिक-व्रत में सदोष प्रवृत्ति
का त्याग और पठन-पाठन, प्रतिलेखन, प्रमार्जन, स्वाध्याय, ध्यान आदि निर्दोष कर्म का आसेवन भी होता है।
सदोष कार्य से बचने के लिये निर्दोष में प्रवृत्तिशील रहना आवश्यक है। • सामायिक-साधना करना अपने घर में रहना है। सामायिक से अलग रहना बेघरबार रहना है । सामायिक साधना
करना आत्मा का घर में आना है। काम, क्रोध आदि विकारों से परिणत होना पराये घर में जाना है। • सामायिक के दो रूप हैं-साधना और सिद्धि । श्रुत सामायिक से साधना का प्रारम्भ और उदय होता है। वह
विकास पाकर ज्ञान और चारित्र के द्वारा आत्मा में स्थिरता उत्पन्न करती है। यह आत्म-स्थिरता ही सामायिक की
पूर्णता समझनी चाहिए। इसे आगम की भाषा में अयोगी दशा की प्राप्ति कहते हैं। • साधक की दृष्टि से सामायिक के अनेक प्रकार किये गये हैं। स्थानांग सूत्र में आगार सामायिक और अनगार
सामायिक दो भेद हैं। आचार्यों ने तीन प्रकार भी बतलाये हैं-सम्यक्त्व सामायिक, श्रुत सामायिक और चारित्र सामायिक। सम्यक्त्व सामायिक में यथार्थ तत्त्व श्रद्धान होता है। सम्यक्त्व की प्राप्ति होने पर ही श्रुत के वास्तविक मर्म को समझा जा सकता है। श्रुत सामायिक में जड़-चेतन का परिज्ञान होता है। सूत्र, अर्थ और तदुभय रूप से श्रुत के तीन अथवा अनक्षरादि क्रम से अनेक भेद हैं। श्रुत से मन की विषमता गलती है, अत: श्रुताराधन को श्रुत सामायिक कहा है। चारित्र सामायिक के आगार और अनगार दो प्रकार किये हैं। गृहस्थ के लिए मुहूर्त आदि प्रमाण से किया गया सावद्य त्याग आगार सामायिक है। अनगार सामायिक में सम्पूर्ण सावद्य-त्याग रूप चारित्र जीवन भर के लिए होता है। आगार सामायिक में दो करण तीन योग से हिंसादि पापों का नियत काल के लिए त्याग होता है, |