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नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं उनके दुःख को अपना दुःख समझ कर मिटाने का प्रयत्न नहीं किया और हृदय में वीतराग प्रभु की आज्ञा को
धारण नहीं किया तो सब कुछ करके भी उसने अपना जन्म व्यर्थ ही गंवा दिया। • लोग भक्ति के सही स्वरूप को समझ कर स्वधर्मियों से वात्सल्य करें, अहिंसा के प्रचार में अपनी शक्ति लगावें
और पीड़ितों को बन्धुभाव से देख कर उनके दुःख दूर करें तो धर्म की बड़ी प्रभावना हो सकती है। उसके बिना आडम्बरों में करोड़ों का व्यय करना कोई अर्थ नहीं रखता। ऐसा प्रतीत होता है कि पापानुबन्धी पुण्य से अर्जित सम्पदा ने आज लोगों की बुद्धि पर पर्दा डाल दिया है, बुद्धि को मलिन कर दिया है अथवा मति को हर लिया है। वह लोगों में सुमति आने नहीं देती। केवल भक्ति का दिखावा करने में ही मति चलती है, शेष सभी
श्रेयस्कर कार्यों में सुमति कुण्ठित हो कर रह जाती है। • एक ही चाबी को घुमाने से ताला बन्द होता है और उसी को घुमाने से ताला खुल जाता है। मन ही बुरे भावों
से कर्म बंध करता है और अच्छे भावों से कर्म तोड़ता है। संसार में तन के प्रति, कुटुम्ब-कबीले के प्रति, भाई-भतीजों के प्रति राग की भावना से बंध होता है। लेकिन देव, गुरु व धर्म के प्रति, धर्मी-संसार के प्रति, धर्मी-संघ के प्रति यदि अनुराग है तो उससे कर्मों की निर्जरा होती है, शुभ कर्मों का बन्ध होता है, संसार में
शान्ति मिलती है, परलोक में सुख मिलता है। • आपको एक बात यह समझनी है कि जैन संघ को ऊँचा उठाना है, जैन समाज में शान्ति लानी है, प्रियजनों और
गुरुजनों का मान रखना है तो जैन समाज को साधर्मी वत्सलता भी सीखनी पड़ेगी। • जो देव, गुरु और धर्म पर श्रद्धा रखता है, जो अरिहन्त को देव मानता है, निर्ग्रन्थ को गुरु मानता है और
केवलियों के धर्म को धर्म मानता है, ऐसे भाई को दुःख में देखकर आपके हृदय में तड़फन आनी चाहिए। उसके रहने और खाने-पीने की व्यवस्था नहीं, धन्धा नहीं तो उसकी सहायता करनी चाहिए। • बुजुर्गों में ऐसी कहावत है कि पाली वगैरह कुछ ऐसे स्थान थे जहाँ पर कोई नया जैन भाई बाहर से आकर
बसता तो उसको एक-एक ईंट और एक-एक मुहर सोने की हर घर से दी जाती। धर्मी भाई सोचते कि हर घर से एक मुहर और एक ईंट दी जायेगी तो उस भाई की आर्थिक स्थिति ठीक हो जायेगी और वह अपना धंधा शुरू करके घर चला सकता है। लोग सोचते, बाहर से कोई भाई हमारे नगर में आया है, वह इधर-उधर हाथ पसार कर नहीं रहे, बराबरी का भाई बनकर रहे। ऐसा समझते थे, तब जैन समाज में सुख-शान्ति थी और समाज सब का प्रेम-पात्र था। आज भी जैन समाज को ऊँचा उठने का मौका मिलते रहना चाहिए। सामायिक
• इस संसार में जितने भी दुःख, द्वन्द्व, क्लेश और कष्ट हैं वे सभी चित्त के विषमभाव से उत्पन्न होते हैं । इन
सबके विनाश का एकमात्र उपाय समभाव है । समभाव वह अमोघ कवच है जो प्राणी को समस्त आघातों से सुरक्षित कर देता है। जो भाग्यवान समभाव के सुरम्य सरोवर में सदा अवगाहन करता रहता है, उसे संसार का ताप पीड़ा नहीं पहुँचा सकता। समभाव वह लोकोत्तर रसायन है, जिसके सेवन से समस्त आंतरिक व्याधियाँ एवं वैभाविक परिणतियाँ नष्ट हो जाती हैं। आत्मा रूपी निर्मल गगन में जब समभाव का सूर्य अपनी समस्त प्रखरता के साथ उदित होता है तो राग, द्वेष, मोह आदि उलूक विलीन हो जाते हैं। आत्मा में अपूर्व ज्योति प्रकट हो जाती है और उसके सामने आलोक ही आलोक प्रसारित हो उठता है।