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(द्वितीय खण्ड : दर्शन खण्ड
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एवं चिंतन में सत्य और अहिंसा घुले हुए नहीं हैं, तो आपकी वाणी में इतनी क्षमता और प्रभाव नहीं होगा कि | सामने वाला उसे मान सके।
वात्सल्य
धार्मिक वत्सलता में जो अनुराग का अणु रहता है, वह शुभ होने से आत्मा को दुःख सागर में डुबाने वाला नहीं होकर, धर्माभिमुख कराने वाला होता है। धार्मिक वात्सल्य की मनोभूमिका में आत्म-सुधार की भावना रहती है। साधक में साधना की ओर लगन हो और साथ ही समाज की उसके प्रति सद्भावना हो तो मानव सहज ही अपना उत्थान कर सकता है। ज्ञानी और माता के वात्सल्य में यदि अन्तर है तो यही कि माता का वात्सल्य अपनी सन्तति तक ही सीमित रहता है और उसमें ज्ञान अथवा अज्ञान रूप में स्वार्थ की भावना का सम्मिश्रण होता है, किन्तु ज्ञानी के हृदय में ये दोनों चीजें नहीं होती। उसका वात्सल्य विश्वव्यापी होता है। वह जगत् के प्रत्येक छोटे-बड़े, परिचित-अपरिचित, उपकारक-अपकारक, विकसित-अविकसित या अर्द्धविकसित प्राणी पर समान वात्सल्य रखता है। उसमें किसी भी प्रकार का स्वार्थ नहीं होता। विकथा • आत्म-हित के विपरीत कथा को विकथा कहते हैं अथवा अध्यात्म से भौतिकता की ओर तथा त्याग से राग की |
ओर बढ़ाने वाली कथा विकथा कहलाती है। विकथा साधना के मार्ग में रोड़े अटकाने वाली और पतन की ओर ले जाने वाली है, अतः साधक को उससे संभल कर पांव रखना चाहिए। विद्वान् • आज देश में हिंसा, झूठ-फरेब और भ्रष्टाचार का बोलबाला है। नैतिक मूल्यों का तेजी के साथ ह्रास हो रहा है। ऐसे समय में विद्वानों का दायित्व है कि वे अहिंसा, सत्य और सदाचार का स्वयं पालन करते हुए परिवार, समाज
और राष्ट्र में इस त्रिवेणी को प्रवाहित करें। • विद्वान अपने को किताबों तक सीमित नहीं रखें। वे धर्मक्रिया में भी अपना ओज दिखायें। “यस्तु क्रियावान्
पुरुष सः विद्वान्” अर्थात् जो क्रियावान है वही पुरुष विद्वान् है। यदि एक विद्वान् सही अर्थ में धर्माराधन से जुड़ जाता है तो वह अनेक भाई- बहनों के लिए प्रेरणा स्तम्भ बन जाता है। जो विद्वान्, संस्कृत, प्राकृत आदि भाषाओं के ज्ञाता हैं उन्हें इन भाषाओं में रचना करना चाहिए। अनुवाद के आधार पर शोध कार्य तो अन्य विद्वान भी कर लेंगे, किन्तु संस्कृत, प्राकृत में लिखने का कार्य इन भाषाओं के विशेषज्ञों द्वारा ही संभव है। इन भाषाओं की अप्रकाशित पाण्डुलिपियों के सम्पादन का कार्य प्राथमिकता के तौर पर किया जाना चाहिए। अभ्यास करने वालों में प्रायः अधीरता देखी जाती है। वे चाहते हैं कि थोड़े ही दिनों में जैसे-तैसे ग्रन्थों को पढ़ लें और विद्वान् बन जाएँ। मगर उनकी अधीरता हानिजनक होती है। ज्ञान-प्राप्ति के लिए समुचित समय और श्रम देना आवश्यक है। गुरु से जो सीखा जाता है, उसे सुनते जाना ही पर्याप्त नहीं है। किसी शास्त्र को आदि