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________________ नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं ४३६ स्थिर और सुदृढ़ है। अर्थनीति और राजनीति में अनेक दुर्गुण हैं। इनमें व्यक्ति अपने उत्कर्ष के लिये अन्य सबका सफाया करने पर उतारू हो जाता है। अतएव अर्थनीति और राजनीति कुटिल कही गयी है। राजनीति में कोई नेता हो गया तो उसके दुर्गुण भी प्रशंसनीय बन जाते हैं। क्या पद पा लेने से उसका बुरापन दूर हो गया यह विचारणीय विषय है। धर्मनीति में ऐसा नहीं होना चाहिये, परन्तु राजनीति का प्रभाव पड़ने से यहाँ पर भी दूषण आ जाता है। कल का ऊँचा आज का हीन बन जाता है। यह वाणी की चंचलता, मनुष्य की प्रामाणिकता के लिये खतरा है। जिसकी प्रशंसा की, ऊँचा माना, उसे शीघ्रता से बुरा न कहिये। हर एक का मूल्य आंकने से पहले विचार कीजिये। शासक के पद पर बैठने वालों का दिल और दिमाग शुद्ध है और उनके दिल में नैतिकता भरी है तो देश सुधर सकेगा। यदि उनका माथा ही बिगड़ा हुआ हो, पैसों को मिलाने का लक्ष्य हो और इस खयाल के हों कि संसार का भला तो होगा तब होगा, लेकिन पहले अपना भला कर लें, घर का भला कर लें तो समाज एवं देश का कल्याण नहीं हो सकेगा। लेखा-जोखा • आप में से जो भाई हजारपति हैं, वे ज्यादा धर्म करते हैं, सत्संग करते हैं, स्वधर्मियों से प्रेम करते हैं। लखपति, करोड़पति जो हैं उनको उनसे भी ज्यादा करना चाहिए, सवाया धर्म-कार्य करना चाहिए। त्याग-तप में, साधु-सेवा में, साधर्मी भाइयों की सेवा में आपका कदम आगे रहना चाहिए। यदि ज्यादा करते हैं तो समझना चाहिए वस्तुतः प्रगति की है, लेकिन इससे विपरीत हो गये तो रुपये बढ़े, काम बढ़ा, लेकिन तप घटा। तप घटा तो धर्म में रुचि और श्रद्धा घटी और अन्तरंग साधना में जो एकाग्रता पहले रहती थी, वह भी नहीं रही। पहले सामायिक में बैठते थे तब घड़ी भर मन लगता था, किन्तु अब लगता नहीं। तीन-चार पीढ़ियाँ चल रही हैं, लाखों-करोड़ों की सम्पत्ति पायी है, लेकिन बहुत धोखे में रहे। साधना में एकाग्रता नहीं रही तो प्रगति की बात तो दूर, यह तो अधःपतन हो गया। यदि हिसाब देखते रहेंगे तो बराबर प्रगति करते रहेंगे। वाणी का बल • मनुष्य की वाणी में ऐसा बल है कि वह तलवार से भी अधिक गहरा प्रहार कर सकती है और चाहे तो पापी से पापी मनुष्य का हृदय भी बदल सकती है। सरलस्वभावी सहृदया कैकेयी रानी का मन-मस्तिष्क सहसा जिस मन्थरा दासी ने बदल दिया था, उसमें भी वाणी का ही प्रभाव था। युद्ध क्षेत्र में शौर्यगीत सुनाकर चारण एवं भाट योद्धाओं को इतना उत्तेजित कर देते थे कि उनकी भुजाएँ फड़कने लगती थीं तब वे अपने प्राणों का मोह छोड़कर शस्त्र-अस्त्र लेकर शत्रु सेना पर टूट पड़ते थे। यह जादू वचन एवं वाणी का ही तो था। भगवान की वाणी किसी एक के लिए नहीं है। ब्राह्मण के लिए या महाजन के लिए ही नहीं है। भगवान की वाणी सुनने का हक किसान, हरिजन आदि सबको प्राप्त है। यह अमृत भगवान ने सबके लिए वितरित किया • आप चाहे अहिंसा और सत्य की बात चौराहे पर बैठकर कहने लगें, लेकिन यदि आपके व्यवहार में, आचरण में
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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