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द्वितीय खण्ड : दर्शन खण्ड
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कहने पर भी नहीं समझते । इनमें से नजर द्वारा समझने वाला देवपुरुष होता है। संकेत से समझने वाला पंडित और कहने से समझने वाला मनुष्य होता है। जो कहने से नहीं, डंडे से समझने की अपेक्षा रखे वह पशु होता
• मानव ! यदि तू अपने जीवन को अहिंसक बनाये रखना चाहता है तो यह ध्यान रख कि जिससे जीवन चलाने
के लिये सहयोग ले, लाभ ले, या काम ले उसको कोई पीड़ा न हो।
मिथ्यात्व
• कुदेव, कुगुरु, कुधर्म पर श्रद्धा करना, नाशवान चीज़ को अनाशवान बताना, नित्य को अनित्य बताना, यह समझ | मिथ्यात्व है। कुदेव को देव मानना, कुसाधु को साधु एवं गुरु मानना मिथ्यात्व है। अजीव को जीव समझे, जीव | को अजीव समझे, धर्म को अधर्म समझे और अधर्म को धर्म समझे तो मिथ्यात्व है। पौषध करना धर्म है लेकिन किसी के यहाँ बन्दोरी का जुलूस निकल रहा है और उसमें वह आमंत्रित है इसलिए ||
पौषध छोड़ना अच्छा समझे, यह ठीक नहीं। जुलूस निकालना धर्म का लाभ समझे तो यह मिथ्यात्व है। - मुमुक्षु
आत्मा के अनादि-निधन अस्तित्व पर जिसका अविचल विश्वास है, जिसने आत्मा के विशुद्ध स्वरूप को, किसी भी उपाय से हृदयंगम कर लिया है, जिसे यह प्रतीति हो चुकी है कि आत्मा अपने मूल रूप में अनन्त चेतना रूप ज्ञान-दर्शन का और असीम वीर्य का धनी है, निर्विकार एवं निरंजन है और साथ ही जो उसके वर्तमान विकारमय स्वरूप को भी देखता है, उस मुमुक्षु के अन्त:करण में अपने असली शुद्ध स्वरूप की उपलब्धि की अभिलाषा उत्पन्न होना स्वाभाविक है, आत्मोपलब्धि की तीव्र अभिलाषा आत्म-शोधन के लिये प्रेरणा जागृत करती है और तब मुमुक्षु यह सोचने के लिये विवश हो जाता है कि आत्म-शोधन का मार्ग क्या है ? आत्मशोधन के प्रधान रूप से दो साधन हैं–साधना की उच्चतर भूमि पर पहुंचे हुए महापुरुषों की जीवनियों का आन्तरिक निरीक्षण और उनके उपदेशों का विचार । साधना की जिस पद्धति का अनुसरण करके उन्होंने आत्मिक विशुद्धि प्राप्त की और फिर लोक-कल्याण हेतु अपने अनुभवों को भाषा के माध्यम से प्रकट किया, साधना के क्षेत्र में प्रवेश करने वालों के लिए यही मार्ग उपयोगी हो सकता है। मोक्ष-मार्ग
• मोक्ष, मात्र ज्ञान से नहीं होता, कोरे दर्शन से नहीं होता, कोरे चारित्र से नहीं होता और कोरे तप से भी नहीं होता
है। किसी ने तप से शरीर को गला डाला, लेकिन उसमें ज्ञान, दर्शन व चारित्र नहीं, धर्म पर भरोसा नहीं, गुरु पर विश्वास नहीं, सद्गुरु और कुगुरु का भेद ज्ञान नहीं है, जो आ गया उसे ही गुरु मान लिया, यह कह दिया कि 'बाना पूज नफा ले भाई।' बहुतेरे लोग वेष के पुजारी होते हैं। बहुत से नाम या गादी या परम्परा के पुजारी होते हैं, लेकिन उन्हें वास्तव में सद्गुरु, गुरु और असद्गुरु का विचार नहीं है। यदि इस तरह से श्रद्धा रखी और तपस्या व मासखमण भी कर गये तो लाभ होने वाला नहीं है। आपने सुना है:
___मासे मासे उ जो बालो, कुसग्गेण तु भुंजए।
न सो सुअक्खायधम्मस्स, कलं अग्घई सोलसीं।