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________________ नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं ४१२ जाएगा। व्रती श्रावक धन-वैभव आदि परिग्रह को जीवन-यात्रा का सहारा समझता है, साध्य नहीं। धन अर्थात् परिग्रह को ही सर्वस्व समझ लेने से सम्यक्दृष्टि नहीं रहती। वह जो परिग्रह रखता है, अपनी आवश्यकताओं का विचार करके ही रखता है और जीवन इतना सादा होता है कि उसकी आवश्यकताएँ भी अत्यल्प होती हैं। इस कारण वह आवश्यक परिग्रह की छूट रखकर शेष का परित्याग कर देता है। परिग्रह का परिमाण करने वाला श्रावक यदि धन, सम्पत्ति, भूमि आदि परिमाण से अधिक रख लेता है तो अनाचार समझना चाहिए। वैसी स्थिति में उसका व्रत पूरी तरह खंडित हो जाता है। पचास एकड़ भूमि का परिमाण करने वाला यदि साठ एकड़ रख लेता है तो यह जानबूझ कर व्रत की मर्यादा को भंग करना है और यह अनाचार है। किसी ने व्रत ग्रहण करते समय एक या दो मकानों की मर्यादा की। बाद में ऋण के रुपयों के बदले उसे एक और मकान प्राप्त हो गया। अगर वह उसे रख लेता है तो यह अतिचार कहलाएगा। इसी प्रकार एक खेत बेच कर या मकान बेचकर दसरा खेत या मकान खरीदना भी अतिचार है, यदि उसके पीछे अतिरिक्त अर्थलाभ का दृष्टिकोण हो। तात्पर्य यह है कि इस व्रत के परिमाण में दृष्टिकोण मुख्य रहता है और व्रतधारी को सदैव इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि उसने तृष्णा, लोभ एवं असंतोष पर अकुंश लगाने के लिए व्रत ग्रहण किया है। अतएव ये दोष किसी बहाने से मन में प्रवेश न कर जाएं और ममत्व बढ़ने नहीं पाए। कई साधक इसके प्रभाव से अपने व्रत को दूषित कर लेते हैं। उदाहरणार्थ- किसी साधक ने चार खेत रखने की मर्यादा की। तत्पश्चात् उसके चित्त में लोभ जगा। उसने बगल का खेत खरीद लिया और पहले वाले खेत में मिला लिया। अब वह सोचता है कि मैंने चार खेत रखने की जो मर्यादा की थी, वह अखंडित है। मेरे पास पाँचवां खेत नहीं है। इस प्रकार आत्म-वंचना की प्रेरणा लोभ से होती है। इससे व्रत दूषित होता है और उसका असली उद्देश्य पूर्ण नहीं होता। • भोगोपभोग की सामग्री परिग्रह है और उसकी वृद्धि परिग्रह की ही वृद्धि है। परिग्रह की वृद्धि से हिंसा की वृद्धि होती है और हिंसा की वृद्धि से पाप की वृद्धि होती है। साधारण स्थिति का आदमी भी दूसरों की देखा-देखी उत्तम वस्तुएँ रखना चाहता है। उसे सुन्दर और मूल्यवान फर्नीचर चाहिए, चाँदी के बर्तन चाहिए, कार-मोटर चाहिए और पड़ौसी के यहाँ जो कुछ अच्छा है सब चाहिए। जब सामान्य न्याय संगत प्रयास से वे नहीं प्राप्त होते तो उनके लिए अनीति और अधर्म का आश्रय लिया जाता है। अतएव मनुष्य के लिए यही उचित है कि वह अल्प-संतोषी हो अर्थात् सहजभाव से जो साधन उपलब्ध हो जाएँ, उनसे ही अपना निर्वाह कर ले और शान्ति के साथ जीवनयापन करे। ऐसा करने से वह अनेक पापों से बच जाएगा और उसका भविष्य उज्ज्वल बनेगा। परिवार • जिस घर का न्याय दूसरों को करने का मौका आ जाए तो समझना चाहिए कि घर की तेजस्विता समाप्त हो गई है। अपना विवाद खुद ही सुलझा लें तो किसी को कहने का अवसर नहीं आता। जब कभी पति-पत्नी के बीच तकरार होती है या पिता-पुत्र के बीच, भाई-भाई के बीच विचार-भेद या मन्तव्य-भेद जैसी उलझन हो जाए, ऐसे
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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