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(द्वितीय खण्ड : दर्शन खण्ड
परिवार और बच्चों के लिये, समाज के हित के लिये, आवश्यकता पूर्ति योग्य अर्थोपार्जन न्याय-नीति से करेंगे
तो सभी लोग आपके मित्र होंगे, आपको न राज्य का डर रहेगा और न समाज का ही। • परिग्रह को सीमित करना, कम करना और परिग्रह के बन्धनों को ढीला करना चाहते हैं तो भोगोपभोग की
सामग्री को सीमित करना होगा, अपनी भोगोपभोग की भावना पर अंकुश लगाना होगा, भोगोपभोग की भावना को घटाना होगा। इच्छा-परिमाण श्रावक के मूलव्रतों में परिगणित किया गया है। इच्छा का परिमाण नहीं किया जाएगा और कामना बढ़ती रहेगी तो प्राणातिपात और झूठ बढ़ेगा। अदत्त ग्रहण में भी प्रवृत्ति होगी। कुशील को बढ़ाने में भी परिग्रह कारणभूत होगा। इस प्रकार असीमित इच्छा सभी पापों और अनेक अनर्थों का कारण है। परिग्रह की एक सीमा कर, परिग्रह का परिमाण कर अपरिग्रही बनने के साथ-साथ भोगोपभोग की सामग्री को | यथाशक्ति सीमित करते रहना, भोगोपभोग की इच्छा पर नियन्त्रण करना परमावश्यक है। भोगोपभोग की इच्छा | जब तक शान्त नहीं होती, तब तक अपरिग्रहपन की आराधना करना गृहस्थ के लिये संभव नहीं है। परिग्रह का परिमाण कर यदि आप परिग्रह को कम करना चाहते हैं, तो अपरिग्रह की भावना के साथ उपभोग-परिभोग को, भोगोपभोग की सामग्री को घटाने की आवश्यकता है। उपभोग-परिभोग को घटाने के साथ ही परिग्रह की आवश्यकता स्वत: कम हो जायेगी और परिग्रह-संचय के लिये होने वाला पाप भी कम हो
जायेगा। • जिस प्रकार भोगोपभोग परिग्रह को बढ़ाने के साधन हैं, उसी प्रकार दिखावा या आडम्बर भी परिग्रह को बढ़ाने
का साधन है । प्रदेशी राजा का जिस दिन अज्ञान घटा उसी दिन उसने राजपाट का प्रबंध किये बिना केशी मुनि के चरणों में बैठकर बारह व्रत धारण कर लिये। बारह व्रत धारण करने के साथ ही साथ उसने परिग्रह परिमाण किया। उसका परिग्रह ज्यादा लम्बा-चौड़ा था या आपका ज्यादा लम्बा-चौड़ा है? आप में से यदि किसी को कहा जाये कि सेठजी परिग्रह की सीमा तो बांधो, तो कहोगे-'महाराज ! अभी तो पता नहीं है कितना देना है, कितना लेना है, कितना माल है, दिवाली पर जब हिसाब करेंगे तब पता चलेगा। वस्तुतः आपका इस प्रकार कहना परिग्रह परिमाण से बचने का बहाना मात्र ही माना जा सकता है। यदि वास्तव में आप परिग्रह का परिमाण करना चाहते हैं तो जितना आज आपके पास है, उतना खुला रखकर बाकी का तो त्याग कर दो। यह तो बिना आंकड़ों के भी आप कर सकते हैं। हिसाब पीछे करते रहना। जितने बंगले, मकान, दुकान इत्यादि हैं, उनसे अधिक नहीं बढ़ाओगे, यह तो प्रण कर लो। इस तरह का संकल्प यदि करना चाहो तो बिना विलम्ब के कर सकते हो। केवल बाहरी वस्तु का परिमाण करने से काम नहीं चलता। यह तो इच्छाओं को सीमित करने की एक साधना मात्र है। साधना क्षेत्र में बाह्य और आन्तरिक परिसीमन की नितान्त आवश्यकता है तथा दोनों का अन्योन्याश्रय सम्बंध है। श्रावक के लिए पूर्ण अपरिग्रही होकर रहना शक्य नहीं है, अतएव वह मर्यादित परिग्रह रखने की छूट लेता है। किन्तु व्रतधारी श्रावक परिग्रह को गृह-व्यवहार चलाने का साधन मात्र मानता है। कमजोर आदमी लकड़ी का सहारा लेकर चलता है और उसे सहारा ही समझता है। कमजोरी दूर होने पर वह लकड़ी का प्रयोग नहीं करता। अगर वह लकड़ी को ही साध्य मान ले और अनावश्यक होने पर भी हाथ में थामे रहे तो अज्ञानी समझा
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