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द्वितीय खण्ड : दर्शन खण्ड
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ओर जागृत होने की आवश्यकता है।
नारी
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• बहनें घर की एक तरह से दीपिका हैं, वह भी देहली - दीपिका । कमरे के दरवाजे को देहली कहते हैं। कमरे के अन्दर लाइट या बत्ती है तो वह कमरे में ही प्रकाश करती है और कमरे के दरवाजे पर बत्ती है तो कमरे के अन्दर और बाहर दोनों तरफ प्रकाश करती है ।
• यह एक मानी हुई बात है कि पारिवारिक जीवन की सफलता बहुत अंशों में गृहिणी की क्षमता पर निर्भर है। दुर्दैव से यदि गृहिणी कर्कशा, कटुभाषिणी, कुशीला तथा अनुदार मिल जाती है तो व्यक्ति का न सिर्फ आत्म-सम्मान और गौरव घटता है, बल्कि घर की सारी इज्जत मिट्टी में मिल जाती है। ऐसी नारी को, गृहिणी के बजाय ग्रहणी कहना अधिक संगत लगता है ।
पुरुष और स्त्री गृहरूपी शकट के दो चक्र हैं । उनमें से एक की भी खराबी पारिवारिक जीवन रूपी यात्रा में | बाधक सिद्ध होती है। योग्य स्त्री सारे घर को सुधार सकती है, नास्तिक पुरुष के मन में भी आस्तिकता का संचार कर देती है। स्त्री को गृहिणी इसीलिए कहा है कि घर की आन्तरिक व्यवस्था, बच्चों की शिक्षा-दीक्षा तथा सुसंस्कार एवं समुचित लालन- पालन और आतिथ्य सत्कार आदि सभी का भार उस पर रहता है और अपनी जिम्मेदारी का ज्ञान न रखने वाली गृहिणी राह भूल कर गलत व्यवहारों में भटक जाती है। अतः उसका विवेकशील होना अत्यन्त आवश्यक है।
• यह बड़ी विडम्बना है कि आज की गृहिणियाँ अपने नहाने, धोने और शरीर सजाने में इतनी व्यस्त रहती हैं कि उनको घर संभालने और बच्चों की शिक्षा-दीक्षा व संस्कार- दान के लिए कोई समय नहीं मिलता। वे चाहती हैं कि बच्चों को कोई दूसरा संभाल ले । आजकल बालमंदिरों पर जिस कार्य का भार डाला जा रहा है प्राचीन काल में वह कार्य गृह-महिलाओं द्वारा किया जाता था। बच्चों में जो संस्कार माताएँ डाल सकती हैं, भला वह बाल-मंदिरों में कैसे सम्भव हो सकता है ?
• यों तो नर की अपेक्षा नारियाँ स्वभावतः विशाल हृदया, कोमल, दयामयी और प्रेम- परायणा होती हैं, किन्तु शिक्षा, सुविचार एवं सत्संगति के अभाव में वे भी संकुचित हृदयवाली बन कर आत्म-कल्याण से विमुख बन जाती हैं। जब तक उनमें समुचित ज्ञान का प्रकाश प्रवेश नहीं पाएगा, तब तक उनका जीवन जगमगा नहीं सकता। नारियों की संकीर्णता का प्रभाव पुरुषों पर भी अत्यधिक पड़ता है और इसी चक्कर में पड़कर वे साधना- विमुख बन जाते हैं ।
• यदि पुत्र को सुसंस्कृत न बनाया जाए तो सिर्फ एक घर की हानि होगी, किन्तु यदि बालिका में सुसंस्कार नहीं दिए जाएँ तो पितृघर और श्वसुर गृह दोनों को धक्का लगेगा तथा भावी सन्तानों पर भी कुप्रभाव पड़ेगा। ज़ो बालिका कुसंस्कार लेकर ससुराल जायेगी, वह वहाँ भी कुसंस्कार का रोग फैलायेगी । अतः लड़के की अपेक्षा लड़की की शिक्षा पर माता-पिता अधिक ध्यान देना आवश्यक है।
• आज की माताएँ बालिका से काम तो बहुत लेती हैं किन्तु उसे सुसंस्कार सम्पन्न बनाने का यत्न नहीं करतीं । दहेज में पुत्री को बहुत सारा धन देंगी, मगर ऐसी वस्तु गांठ बांध कर नहीं देतीं जो जीवन भर काम आवे। जिस लड़की के साथ श्रद्धा, प्रेम, सुशीलता, सदाचार, प्रभु भक्ति और मृदु-व्यवहार की गांठ बांधी जाती है, वह असली