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________________ नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं ४०४ ध्यान/योग-साधना भिन्न-भिन्न कोटि के व्यक्तियों के धर्म-ध्यान और साधना के स्तर में बड़ा गहरा अन्तर रहता है। कषाय के तीव्र भाव क्रमशः जितने कम होते जायेंगे और ज्यों-ज्यों धर्म-ध्यान बढ़ता जाएगा, उतना ही वह उच्च से उच्चतर बनता जाएगा और अन्ततोगत्वा वही धर्म-ध्यान शुद्धतम बनकर शुक्ल-ध्यान के रूप में परिणत हो जायेगा। वस्तुतः इसी प्रकार का ध्यान आत्मा का अन्तर्लक्ष्यी ध्यान होता है। एकान्तवाद को मानने वाला मिथ्यात्वी भी ध्यान की साधना करता हुआ दिखाई देता है और दीर्घकाल तक बाहरी संतोष प्राप्त कर वह अपना समाधिस्थ रूप भी संसार के समक्ष प्रस्तुत करता है। धर्म-ध्यान के सम्बन्ध में जैन-दर्शन की मान्यता यह है कि जब तक किसी प्राणी के अन्तर के अज्ञान की, तीव्र मिथ्यात्व की उपशान्ति नहीं होती एवं सम्यक् ज्ञान की ज्योति नहीं जग पाती, तब तक उस प्राणी को धर्म-ध्यान का अधिकारी नहीं कहा जा सकता। आर्तध्यान आपके मोह कर्म के उदय भाव से होने वाला ध्यान है। जब तक हम आर्त्त-ध्यान के आश्रित होंगे तब तक रौद्र-कषायों के भाव आते रहेंगे, क्योंकि कषायों के प्राबल्य में किसी भी समय रौद्र-ध्यान उत्पन्न हो सकता है। मन में राग-द्वेष-क्रोधादि भावों का प्राबल्य होने पर धन, धरा, धामादि के प्रश्न को लेकर बात-बात पर मित्रों, सगे-सम्बन्धियों एवं अन्यान्य लोगों के साथ लड़ाई-झगड़ा करना, दूसरों के लिए बुरा सोचना, दूसरे लोगों के धन, जन एवं प्राणों को हानि पहुँचाने का विचार करना रौद्र-ध्यान है। आर्त्त-ध्यान रागाश्रित है और रौद्र-ध्यान द्वेष-प्रधान है। • ध्यान का विशद विवेचन आगम और आगमेतर ग्रंथों में है। आज श्रमण समाज में ध्यान का अभ्यास प्राय: नहीं के समान है। इसके लिए विशेष रूप से शिक्षा देनी आवश्यक है। जैन व जैनेतर परम्पराओं से प्रस्तुत विषय पर अनुसंधान कर मौलिक तथ्य प्रकट करना चाहिए और सुनियोजित मार्ग-निर्माण करना चाहिए। • हमारे तीर्थंकरों की मूर्तियाँ वीतराग मुद्रा में होती हैं। श्वेताम्बर दिगम्बर परम्परा में मुद्रा का जरा अन्तर है। दिगम्बर परम्परा वाले अर्ध निमीलित मुद्रा में ध्यानासन की प्रतिकृति प्रस्तुत करते हैं, तो श्वेताम्बर पूरे खुले नयन की मुद्रा में। जैन तीर्थंकरों का छद्मकाल अधिकांश ध्यान-साधना में ही बीतता है। उसमें प्राणायाम जैसी क्लेश क्रिया नहीं होती। उनकी साधना में मन, वाणी और काय योग की स्थिरता अखण्ड रहती है। जैन दीक्षा में इसी प्रकार के योग की शिक्षा और दीक्षा दी जाती है। जैन दीक्षा का सावद्ययोग प्रत्याख्यान इसी बात का द्योतक • आज की चालू योग की साधना से इसमें यही अन्तर है कि जैन योग में वृत्तियों के मोड़ बदलने का लक्ष्य मुख्य है। अभ्यास के बल पर जैन साधक अशुभ योग पर विजय पा लेता है। वह शुभ से अशुभ को जीतता है। हमारी समझ में यही जैन योग की दीक्षा है। इस प्रकार की साधना के निरन्तर अभ्यास से अनुभव आने के पश्चात् - सविकल्प और निर्विकल्प समाधि रूप सुख की अनुभूति होती है। इसी को सिद्ध योग की दीक्षा कह सकते हैं। इसमें यम-नियम और आसन आदि स्वत: आ जाते हैं । • आज भी दीक्षा तो वही दी जाती है, पर शिक्षा दान और उसका यथावत् ग्रहण, धारण एवं आराधन नहीं होने से आज उसका प्रभाव जैसा चाहिये वैसा दृष्टिगोचर नहीं होता। यह हम साधकों के प्रमाद का परिणाम है। हमें इस
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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