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(द्वितीय खण्ड : दर्शन खण्ड
३४३ • बन्धन संसार है और बन्धन को काटने की प्रक्रिया चारित्र है। • ज्ञान अपने भीतर भी उजाला करता है और दूसरों के भीतर भी उजाला करता है।
यदि विषय-कषाय नहीं घटते हैं तो कहना चाहिए कि अब तक हमारे जीवन में चारित्र नहीं है। • चारित्र उस क्रिया का नाम है जो संचित कर्मों को काटने का काम करती है। . चारित्रवान कभी भी सामने वाले की गलती नहीं निकालता। • चरित्र नहीं है तो चारित्र नहीं। चरित्र आने के बाद एक लाइन और बढ़ाते हैं, 'आ' की मात्रा लगाते हैं, तब
चारित्र आता है। • नियम या प्रतिज्ञा करने में गरीब-अमीर का भेद नहीं है। • चारित्रवान मानव नमक हैं, जो सारे संसार रूपी सब्जी का जायका बदल देते हैं।
जब कभी भी सोते, जागते, उठते, बैठते हम वीतराग का स्मरण करेंगे, ध्यान करेंगे, चिन्तन करेंगे, वह एक-एक
क्षण परम कल्याणकारी होगा, जन-जन के ताप त्रय को दूर करने वाला होगा। • आस्रव-त्याग के साथ जो तप की आराधना होगी वह दोगुनी ताकत वाली होगी। 1. चारित्र के साथ, आस्रव-त्याग के साथ तपस्या की महिमा है। • सद्गृहस्थों का कर्त्तव्य प्रतिदिन तप करना है। , महावीर का जो मुक्ति-मार्ग है, वह त्याग या वीतरागता-प्रधान है। • यदि महावीर के बताये माफिक ऊनोदरी आदि तप करने लगे तो समझ लीजिए कि लोगों की आधी बीमारी
कम हो जाए। यदि ८ दिन में या १५ दिन में एक बार व्रत होता रहे तो आदमी को बीमारी जल्दी नहीं होती और डाक्टर की शरण में जाने की जरूरत नहीं पड़ती। कहीं मेहमानदारी में जाओ तो भूख से ज्यादा न खाओ। छोटे-बड़े गुरुजनों का, साधु-साध्वियों का, साधर्मी-बन्धुओं का, श्रावक-श्राविकाओं का, तपस्वी भाई-बहनों का विनय करना तपस्या है। पर्युषण और व्रत के दिनों मे जितनी सादगी रखोगे, परिग्रह का बोझ जितना कम रखोगे, उतना ही अच्छा रहेगा।
इससे मन में शान्ति रहेगी, परिवार में शान्ति रहेगी। • वेदनीय कर्म को मिटाना है, निराबाध सुख पाना है तो इसका साधन है 'तप'। • तूप की साधना करेंगे तो आपकी वेदना का जोर कम हो जाएगा। • बिना संयम के जो तप है वह वास्तविक तप नहीं है। • संयम के साथ तप ज्ञान-तप है और असंयम के साथ तप अज्ञान-तप है। तप की पूरी ताकत मिलानी है तो वाणी का संयम करके जो तप की साधना की जाएगी उसकी ताकत चार ||
गुणा, दस गुणा ही नहीं शत गुणा होगी। • संयम जितना कम होगा और असंयम जितना ज्यादा होगा उतने कर्म के बन्धन भी ज्यादा होंगे।