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(द्वितीय खण्ड : दर्शन खण्ड
३३३ • जो आत्मा को शुद्ध-बुद्ध बनाने में सहायक हो, वह साधना चाहे विचार-सम्बन्धी हो या आचार संबंधी, 'धर्म' है।
इसके विपरीत जो क्रिया जीवन की अशुद्धि बढ़ावे, आत्मा को स्वभाव से दूर करे वह सब अधर्म है। • श्रमण और श्रावक शुद्ध मन से ज्ञान-क्रिया की साधना करे तो आत्म-कल्याण हो सकता है। • माँ ने मनुष्य को मानव रूप से उत्पन्न किया । उसको देवत्व छोड़ दानव-भाव में नहीं जाना चाहिए। • श्रद्धा, विवेक और करणी का मेल हो वही श्रावक है।
ज्ञानी की देव, गुरु एवं धर्म पर श्रद्धा होती है और अज्ञानी की जड़-सम्पदा पर । • मनुष्य को भगवान की अपेक्षा माया से अधिक प्रेम होता है। इसका प्रमुख कारण अज्ञान है।
आत्मार्थी को पाप से बचने के लिये प्रमाद और कषाय घटाने चाहिए। गृहस्थ संसार में रहते हुये सम्पूर्ण हिंसा आदि का त्याग नहीं कर सकता, फिर भी उसका विचार शुद्ध हो सकता | है। वह पाप को पाप और षट्कायिक जीवों को अपने समान समझता है।
ज्ञान के बिना कषाय का जोर नहीं हटता। • आप स्वाध्यायशील रहें तो आचार की त्रुटियाँ सहज ही दूर हो सकती हैं।
दु:खमय संसार में प्राणियों की रति देख शास्त्रकार भी आश्चर्य करते हैं। श्रावकपन किसी जाति या देश में सीमित नहीं होता। विवेकशील कोई भी मनुष्य श्रावक हो सकता है। • सुज्ञ पुरुष चढ़ते परिणामों में साधना एवं व्रतादि कर लेते हैं। • साधक श्रद्धा-प्रतीति होने पर भी रुचि के अभाव में चारित्र ग्रहण नहीं करता।
जिसके संग से कुमति दूर हो, भजन की रुचि बढ़े, राग-द्वेष घटे सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति हो वही सत्संग है। . दिल के साफ आइने में ही परमात्मा के दर्शन होते हैं। • धर्म सत्य की भूमि पर पैदा होता है और दया-दान से बढ़ता है। • चाहे माला जपें, सामायिक करें या अन्य कुछ करें, सत्य-सदाचार और प्राणिदया को जीवन में उतारना न भूलें।
व्यवहार में प्रामाणिक होना मूलगुण होना चाहिए। विनीत शिष्य और जातिमान् वृषभ एक बार रास्ते लगने के पश्चात् बिना प्रेरित किए ही चलते रहते हैं। . सद्विचारों से कुविचार की गंदगी मन से निकल जाती है। • मनुष्य का जीवन मिट्टी के पिंड के समान है। उसको जैसा संग और शिक्षा मिले वह वैसे रूप में ढल सकता
ब्रह्मचर्य मानव-जीवन का पानी है। जिसका पानी उतर गया वह हीरा मूल्यहीन हो जाता है। यदि आज का मानव महावीर के शासन को ध्यान में लेकर चले तो वर्ग-संघर्ष का नाम ही न हो। समदृष्टि का जीवन धर्मप्रधान होता है, अर्थप्रधान नहीं।