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________________ प्रथम खण्ड : जीवनी खण्ड ३०९ शरीर बरामदे से व्याख्यान-स्थल पर स्थित चबूतरे पर रखा जा चुका था। 'जय गुरु हस्ती', 'गुरु हस्ती अमर रहे', 'जब तक सूरज चाँद रहेगा, हस्ती गुरु का नाम रहेगा' आदि गुरु की प्रशस्ति में जय जयकार के नारे लगाते भक्तजन रात भर आते रहे, अश्रुसिक्त नयनों से पंक्तिबद्ध भक्त अपने आराध्य गुरु भगवन्त की स्मृति को नमन करते हुए दर्शन करते रहे। सूर्योदय होने पर महासतीगण भी गंगवाल भवन में संतों के दर्शनार्थ पधारी । असंख्य लोगों की वह भीड़ जब संत-सतीगण के दर्शन करती एवं गुरुदेव के स्थान को खाली देखती तो वातावरण गम्भीर और बोझिल बन जाता। वह दृश्य अत्यन्त करुणार्द्र था। भक्तों के नयनों से इसकी अभिव्यक्ति हो रही थी। चारों दिशाओं से आने वालों का यह अटूट तांता बढ़ता गया। निमाज क्षेत्र के इतिहास में यह प्रथम अवसर था, जब इतनी भारी भीड़ एकत्र हुई हो। बसें, मेटाडोर, जीप, ट्रक, ट्रेक्टर व कारों के लिये गाँव के बाहर खेतों में अलग पार्किंग व्यवस्था करनी पड़ी। तन-मन-धन सर्वस्व समर्पण किये सभी निमाज ग्रामवासी व्यवस्था व आगत बन्धुओं की सेवा में दौड़ रहे थे। उत्साही ग्रामवासियों का विचार था कि महाप्रयाण-यात्रा गांव के मुख्य-मुख्य मार्गों व बाजार से होकर | निकाली जाय, पर जनसमूह की अपार संख्या को देखकर यह विचार स्थगित करना पड़ा। कहीं तिल भर भी जगह नहीं थी। जहाँ भी नजर जा पाती, आदमी ही आदमी नजर आते, मानो अपार जनसागर उमड़ पड़ा। नियन्त्रण हेतु वहाँ उपस्थित पुलिस जन भी उस जनसमूह के प्रबल वेग को नियंत्रित करने में अपने आपको अक्षम पा रहे थे। व्यवस्थापकों द्वारा ध्वनियंत्र पर दिये जा रहे निर्देश उस अपार जनसमूह के कोलाहल में डूबे जा रहे थे। सांसद, विधायक, मंत्री, मुख्यमंत्री (भैरोसिंह शेखावत), राजनेता, न्यायविद्, समाजसेवी, कार्यकर्तागण भी भक्तजनों की इस | अपार भीड़ में सम्मिलित हो अपने आपको गौरवान्वित अनुभव कर रहे थे। राज्य सरकार ने उन षट्काय प्रतिपालक, अंहिसा व अभय के दूत श्रमण रत्न को श्रद्धांजलि स्वरूप पूरे राज्य में बूचड़खाने व मांस-विक्रय बंद रखने का आदेश प्रसारित किया, जिसका पूरा पालन किया गया। अनेक ग्राम-नगरों में बाजार भी पूर्णतः बन्द रहे। निश्चित समयानुसार ठीक एक बजे, जब महाप्रयाण यात्रा प्रारम्भ हुई, लक्षाधिक भक्तों का सैलाब अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि देने को उद्यत था। सब अपने अन्तर में रिक्तता का अनुभव कर रहे थे। परन्तु जिनशासन के इस महामनीषी ने उत्तुंग नभ में जो आरोहण किया, उसका प्रमोद सबको भरा-भरा महसूस कराने के लिये प्रयत्नशील था। गुरु हस्ती की जय, भगवान महावीर की जय, जब तक सूरज चांद रहेगा, गुरु हस्ती का नाम रहेगा' आदि अनेक जयनादों से नभ गूंज उठा। जैन-जैनेतर, आबालवृद्ध युवक, पुरुष व महिला, सभी महनीय महासाधक की इस महाप्रयाण की वेला में | उपस्थित थे। यहाँ जाति, धर्म, लिंग, वय, सम्प्रदाय व स्तर का न कोई बंधन था, न कोई दीवार थी। जो भी था वह उन श्रमणश्रेष्ठ का पुजारी था, सभी उन महापुरुष की इस महाप्रयाण-यात्रा को व्यथित हृदय, बोझिल मन, सजल नयनों से देख रहे थे 'इमां की शान जिसको अजीज थी, अपनी जान से। वो खिज्र जा रहा है, देखो कितनी शान से॥' जिस हस्ती के विराजने से वह गंगवाल भवन तीर्थ बना हुआ था, वहाँ के कोने-कोने से जिस महापुरुष की |संयम-साधना की महक आ रही थी, आज वही महापुरुष भक्तों के कंधों पर आसीन हो, इस भवन को वीरान कर
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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