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________________ नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं २८८ दूसरे दिन कोट का मोहल्ला से विहार कर ज्ञानशाला स्थानक पैदल ही पधारे। दूसरे दिन भी पहले दिन | वाली बात दोहराई तो सन्त विचारमग्न हो गये। विविध आशंकायें मस्तिष्क पटल से टकराने लगी। संतों को गम्भीर व विचारमग्न देखकर आचार्यप्रवर ने रहस्य का पर्दा हटाते हुए फरमाया- “अब मुझे मेरे जीवन का ज्यादा समय नहीं लगता, अतः अन्तिम समय की प्रक्रिया में सावधान हो जाऊँ।" गुरुदेव के ये शब्द कर्णगोचर होते ही, अनागत की कल्पना मात्र से ही हृदय व्यथित हो गए, सब मौन-स्तब्ध थे, पर गुरुदेव के मुख-मंडल पर वही पूर्व निश्चिन्तता के भाव परिलक्षित हो रहे थे। उस प्रशांत भय रहित मुख-मुद्रा पर कोई शिकन मात्र भी नहीं थी। उन मृत्युंजयी महापुरुष ने अपना मौन तोड़ते हुए गमगीन बने संतों को उद्बोधित करते हुए फरमाया- “भाई, इसमें व्यथा की क्या बात? मृत्यु अवश्यम्भावी है, अतः आप लोग मुझे अन्तिम समय में पूरा साथ देना, संघ में अनुशासन व प्रेम बनाये रखना तथा दृढ़ता के साथ समाचारी का पालन करना।" पूज्यवर्य ने प्रत्येक शिष्य के मस्तक पर अपना वरद हस्त रखते हुए अमित वात्सल्य की वर्षा करते हुए सभी को योग्यतानुसार भोलावण (शिक्षा) दी। वरिष्ठ संतों को भोलावण देते हुए श्रद्धेय श्री मानमुनिजी महाराज साहब (वर्तमान उपाध्याय प्रवर) को फरमाया-"जैसे मेरे गुरुदेव पूज्य श्री शोभाचन्द्र जी महाराज साहब के समय स्वामीजी श्री चन्दनमलजी महाराज साहब का और मुझे स्वामी श्री सुजानमलजी महाराज साहब का सहकार-सहयोग मिलता रहा, वैसे ही मेरे बाद संघ का ध्यान रखना।” सन्तों के कंठ अवरुद्ध थे, वाणी मौन थी, खामोशी के साथ श्रद्धा एवं विनम्रतापूर्वक गुरुदेव की भोलावण |स्वीकार कर रहे थे। निःशब्द वातावरण को देखकर मधुर स्वर में भजन गुनगुनाते हुए गुरुदेव ने सभी संतों को साथ में गाने का निर्देश दिया- “मेरे अन्तर भया प्रकाश, नहीं अब मुझे किसी की आश..।” गुरुदेव के द्वारा स्वरचित भजन के ये बोल हृदय के तारों को झंकृत कर रहे थे। एक-एक पद में विनश्वर संसार की क्षण भंगुरता एवं जड़-चेतन के भेदज्ञान का सारगर्भित चित्रण प्रस्तुत करते हुए मानों गुरुदेव सन्तों को अपनी अन्तिम देशना दे रहे थे। भजन के अनन्तर सभी सन्त अपनी अपनी दैनिक चर्या में लग गये, पर सभी के दिलोदिमाग में गुरुदेव के ही शब्द गुंजित हो रहे थे। सायंकाल आहार के बाद आचार्य देव को वमन हो गया तो सभी का मन घबरा गया। सन्तों को लगा-आज ही तो गुरुदेव ने अन्तिम समय की बात कही और आज ही स्वास्थ्य में गड़बड़। प्राथमिक उपचार के पश्चात् डॉक्टर को दिखाया तो डॉक्टर बोले-"हृदय, रक्तचाप एवं नाड़ी सभी सामान्य हैं। गैस के कारण भी वमन हो सकता है।" सन्तों का दिल भावी की आशंका से भारी हो रहा था, पर वह मस्ताना अध्यात्मयोगी हस्ती तो अपनी संयम साधना | की मस्ती में ही मस्त था। _"मेरे जीवन का समय अब कम है।" आचार्य देव के ऐसा फरमाने पर श्रद्धेय श्री हीराचन्द्रजी महाराज साहब (वर्तमान आचार्यप्रवर) ने पूज्य गुरुदेव श्री से पूछा-"भगवन् ! सती-मण्डल को दर्शन देने एवं जोधपुर संघ की भावना को रखने के लिए पहले सीधे जोधपुर चलें तो कैसा रहेगा?” पर उन वचनधनी महापुरुष को जहाँ एक ओर अपने शेष समय का ध्यान था तो आश्वासन पूर्ति का लक्ष्य भी दृष्टि में था। उन्होंने यही फरमाया -“जोधपुर से वापिस आना हाथ में नहीं, मुझे तो निमाज श्री संघ को दिया गया आश्वासन पूरा करना है, अतः संत सती निमाज आकर दर्शन-सेवा का लाभ ले सकते हैं।"
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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