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________________ नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं (૨૮૬ पश्चात् १० फरवरी १९९१ रविवार, फाल्गुन कृष्णा ११ को आपका विहार निमाज की ओर हो गया। विहार के समय पाली निवासियों के नयन नम थे, मन भारी हो उठा था, हृदय-कमल कुम्हला रहा था। चातुर्मास काल में एवं उसके पश्चात् भी आचार्य भगवन्त के विराजने से अनूठा ठाट रहा। किसी को क्या पता था कि पाली का यह चातुर्मास चरितनायक गुरुदेव का अन्तिम चातुर्मास होगा और जिस प्रकार शासनपति श्रमण भगवान महावीर का अन्तिम चातुर्मास पावापुरी में हस्तीपाल राजा की रज्जुशाला में हुआ, उसी भांति उनके ८१ वें पट्टधर पूज्य हस्तीमलजी महाराज का पाली के श्रेष्ठिवर्य हस्तीमलजी सुराना की उपासनाशाला में सम्पन्न यह चातुर्मास इतिहास का अविस्मरणीय अध्याय बन जायेगा। रुंधे कण्ठ से 'जय गुरु हस्ती' के नारों की ध्वनि गूंज रही थी। उसका अपना प्रभाव था। पूज्य गुरुदेव हस्ती को अपनी जयकार अप्रिय लग रही थी, अत: पीछे मुड़कर जनता से कहा- “मेरी नहीं, तीर्थंकर भगवान की जय बोलो।" आचार्यप्रवर में पदयात्रा की शक्ति नहीं थी। अत: सन्तों के सहारे से कुछ दूर पैदल चले। सन्तों ने उन्हें ले चलने के लिए डोली तैयार कर रखी थी। डोली के निकट पहुँचते ही सन्तों ने निवेदन किया-"भगवन् अब डोली में विराजमान हो हमें सेवा का दुर्लभ अवसर प्रदान करें।" ,सरलता की प्रतिमूर्ति एवं असीम आत्मशक्ति के धारक महापुरुष ने मधुर मुस्कान के साथ कहा- “अभी और पैदल चलने दो।" चलने की शक्ति नहीं थी, किन्तु भावों में अदम्य उत्साह था। अन्तत: सन्तों की प्रबल प्रार्थना एवं सेवा की उत्कट भावना को देखकर आचार्य श्री डोली में विराजे। सन्त उत्साह एवं उमंग के साथ गुरुदेव को डोली में लेकर चल दिए। किसी भावुक भक्त ने जयकार लगाई“पालकी में विराजित आचार्य श्री हस्तीमलजी म.सा. की जय ।" यह सुनकर डोली में विराजे हुए चरितनायक ने कहा “पालकी उठाने वाले सन्तों की जय ।" यह सुनकर जनसमूह श्रद्धाभिभूत हो गया, सभी सन्त गद्गद् हो गए। बेजोड़ थी उनकी सरलता और निरभिमानता। शक्रेन्द्र द्वारा नमिराजर्षि की स्तुति में जो कहा गया है, वह आचार्यप्रवर के सम्बन्ध में चरितार्थ हो रहा था अहो ते अज्जवं साहु, अहो ते साहु मद्दवं । अहो ते उत्तमा खंती, अहो ते मुत्ती उत्तमा । __(अहो ! उत्तम है आपका आर्जव, अहो ! उत्तम है आपका मार्दव, अहा ! उत्तम है आपकी क्षमा, अहो ! सर्वश्रेष्ठ | है आपकी निर्लोभता।) ___आचार्य श्री की लघु देह में विशेष भार नहीं, तथापि डोली उठाने वाले सन्तों से कहते - “भाई मेरे कारण से आप सन्तजनों को कष्ट उठाना पड़ रहा है।” सन्त निवेदन करते- “पूज्य गुरुवर्य, कृपया ऐसा न फरमावें । आपने जीवन में कभी ऐसा अवसर ही नहीं आने दिया। आपका स्वावलम्बी जीवन हमारे लिए व संत समुदाय के लिये युगों-युगों तक प्रेरणादायी है। प्रभो ! भक्ति में कैसा भार व कैसा कष्ट? यह तो हमारा प्रथम कर्तव्य ही नहीं वरन् | सौभाग्य है, सेवा का स्वर्णिम अवसर है।" • सोजतसिटी में फाल्गुनी पूर्णिमा ___सन्त इस बात से प्रसन्न थे कि उन्हें गुरुदेव की सेवा का अवसर मिला। सभी क्रमशः इस सेवा से लाभान्वित होने के लिए लालायित थे। सभी सन्त पूज्य गुरुदेव के सहज सात्त्विक वात्सल्य से अनुप्राणित थे।
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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